एक महान किंवदंती : विजयनन्दिनी
© DEVISHI AGGARWAL, A CITIZEN OF INDIA
नाटक में आए समस्त पात्र
1.
कथावाचक: कथा
का वाचन करने वाला
2.
विजयनन्दन:
मायानगरी का स्वर्गवासी सम्राट एवं विजयनन्दिनी का प्रेमी
3.
विजयनन्दिनी:
तिलिस्मगढ़ की स्वर्गवासी महारानी एवं विजयनन्दन की प्रेयसी
4.
मायानगरी का
चिकित्सक
5.
रौनिका :
मंत्री
6.
चारुमित्र :
मंत्री
7.
रूद्र :
मंत्री
8.
विशेष :
मंत्री
9.
चंडालिनी: एक
क्रूर महारानी एवं चंद्रमुखी की पुर्ख
10.
महीश: आधा
मानव तथा आधा भैंसा एवं चंडाल वंश का वफादार
11.
विधर्बिका:
विजयनन्दन तथा विजयनन्दिनी पुत्री एवं तिमा की रक्षक
12.
सोम्मुखी:
चंदंवादी की महारानी एवं विधर्बिका की मुंहबोली माँ
13.
पुलकेशिन:
चंदंवादी का सम्राट एवं विधर्बिका का मुंहबोला पिता
14.
भविष्यवाणी:
आकाश से हुई भविष्य बतलाने वाली वाणी
15.
वानीषा:
मायानगरी की पूर्व महारानी एवं विजय की माँ
16.
विपलवदेव:
मायानगरी का पूर्व सम्राट एवं विजय का पिता
17.
वैशालीमा:
तिलिस्मगढ़ की पूर्व महारानी एवं विजयवती की माँ
18.
वांगम सिंह:
तिलिस्मगढ़ का पूर्व सम्राट एवं विजयवती का पिता
19.
विजय:
मायानगरी का नव राजकुमार, विजयनन्दन का अवतार एवं विजयवती का प्रेमी
20.
विजयवती: तिलिस्मगढ़ की नव महारानी, विजयनन्दिनी
की वीर अवतार एवं विजय की प्रेयसी
21.
मयूर:
तिलिस्मगढ़ में रहने वाला विजय तथा विजयवती का मित्र
22.
सादवी:
मायानगरी में रहने वाली विजय तथा विजयवती की सखी
23.
हाकिम:
मायानगरी में रहने वाला विजय तथा विजयवती का मित्र
24.
निलीमा:
तिलिस्मगढ़ में रहने वाली विजय तथा विजयवती की सखी
25.
गुंजन:
तिलिस्मगढ़ में रहने वाली विजय तथा विजयवती की दूसरी सखी
26.
मृगेंद्र:
मायानगरी में रहने वाला विजय तथा विजयवती का दूसरा मित्र
27.
दो मंत्री:
तिलिस्मगढ़ और मायानगरी के सन्देश देने आए मंत्री
28.
वरद:
ब्रह्मचरिणी पुत्र एवं विजय तथा विजयवती के बचपन का मित्र
29.
ब्रह्मचरिणी:
विजय तथा विजयवती को ज्ञप्ति प्रदान करने वाली गुरुमाँ
30.
रागिनी:
तिलिस्म्गढ़ में रहने वाली एक स्त्री
31.
चंदरिया:
तिलिस्मगढ़ में रहने वाली दूसरी स्त्री
32.
किशन:
मायानगरी में रहने वाला एक पुरुष
33.
अंशुमन:
मायानगरी में रहने वाला दूसरा पुरुष
34.
दीपांजली:
मायानगरी में रहने वाली एक स्त्री
35.
संग्राम:
मायानगरी में रहने रहने वाला तीसरा पुरुष
36. अमजद:
तिलिस्मगढ़ में रहने वाला एक पुरुष
37. महाल्सहा:
तिलिस्मी सेना की पूर्व योद्धा
38. चंद्रमुखी:
हश्रनगर की महारानी एवं चंडालिनी की वंशज
39. मधुअचरिणी:
तिलिस्मगढ़ तथा मायानगरी में प्यास बुझाने वाली बहती हुई सरिता
40. तितलियाँ:
विजयवती को सलीला की गहराइयों में डूबने से बचाने वाली तितलियाँ
41. वैद्य:
विजयवती का उपचार करने वाली चिकित्सक
42. ध्वनि:
विजयवती को जीवन के प्रयोजन का भान कराने वाली विचित्र ध्वनि
43. चंद्रपाखी:
स्वर्णिमलोक की महारानी
44. आमिलाह: विजय
का मनोबल कायम रखने वाली एक छोटी कन्या
45. वैभव: वरद का
पुर्नोत्थान स्वरूप
46. अनामिका:
विजयवती की पुर्नोत्थान स्वरूप
दृश्य (दो जादुई राज्य-एक का नाम
तिलिस्म्गढ़ तथा दूसरे का नाम मायानगरी। दोनों की बात ही थी निराली। दो हरे भरे
साम्राज्यों में था कलाकारी व जादू का बाज़ार। जादू भी ऐसा, कि देखते ही दिल बोल
बैठे वाह, वाह, वाह! सिर्फ इन्सान ही नहीं, जानवर भी थे जादू के कलाकार। उड़ती थी
मछलियाँ, बोलते थे जानवर और संग चलते थे वृक्ष। निराली बात तो यह थी कि एक बार छूते
ही, हीरा बन जाती थी चटान। जादू भरा हुआ था हवाइयों में, फूल बदलते रहते थे अपने
रंग। तैरती थीं तितलियाँ लहरों के संग। कभी कबार तो फसलों के गाए हुए गीतों की
गूंज पहुँचती थी कानों तक। कुदरत का अद्भुत करिश्मा थे यह दोनों साम्राज्य। कभी सुनाई
देती समुद्र की लहरें तो कभी कोयल की मधुर आवाज़। आनंदित हो उठता था मन, जब सुनाई देती
थी गुनगुनाते भौरों की ध्वनि। आसमान था एक लाजवाब जादूगर जो बदलता रहता था अपने
रंग –कभी गुलाबी, तो कभी नीला, कभी लाल तो कभी पीला, कभी नारंगी तो कभी जामुनी।
देवदार के सुरसुराने की आवाज़ सुनाई देती थी हर स्थान पर।था ढक रखा वन्यभुवन ने
दक्षिण और पूरब दिशाओं को| उत्तर में था महा इन्द्रसागर तो
पश्चिम में थे शैल| थीं वे महान से महान जादूगरों का
निकेत। मधुअचरिणी नदी बहती थी राज्यों के भीतर। हंसती-खेलती रहती थी प्रजा व चहचहाते
थे पंछी। राज्य बना हुआ था पीतल, कांच, सोने व चांदी का। लोग थे किसान, व्यापारी,
योद्धा पुजारी व कार्यकर्ता। हर वर्ष, होती थी भारी बरसात और गाते थे मोर। सब था
एकदम कुशल मंगल।)
कथावाचक: सुनो, सुनो, सुनो! यह गाथा है बहुत पुरानी,
देविशी अग्रवाल की ज़ुबानी। दूर तिलिस्म्गढ़ के राज्य में था महारानी विजयनन्दिनी का
वास। पास ही के मायानगरी राज्य में था कुमार विजयनन्दन का राज। एक दिन राजसी
मामलों का विनियमन कर ने मायानगरी से तिलिस्म्गढ़ आ पहुंचा कुमार विजयनन्दन। देख
वहां की हसीन महारानी विजयनन्दिनी की मन मोह लेने वाली खूबसूरती, रह गया वह मंत्र
मुग्ध। (रास्ते में ही दिख गई उसको तिलिस्म्गढ़ की ओजस्वी रानी जो निकली थी विपिन
की सैर पर।)
विजयनन्दन: (मन मोहित हो कर) हे, महारानी विजयनन्दिनी, आपकी
सौम्यता एकदम मन लुभा देने वाली है। हम हैं मायानगरी के कुमार विजयनन्दन। मित्रता
का हाथ बढ़ा ने आए थे और अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि सफल हो कर ही वापिस लौटेंगे।
आप एकदम तेजस्वी, एकदम मनोहर तथा एकदम प्रभावशाली हैं। तिलिस्म्गढ़ बहुत खुश किस्मत
हैं जो आप यहाँ की शासिका हैं।
विजयनन्दिनी: शुक्रिया। अब हम इतने भी कुछ खास नहीं हैं। आपकी
वीरता और युद्धकला के कई किस्से सुने हैं हमने। बहुत मानती है हमारे राज्य की
प्रजा आपको। सच में, मायानगरी को आप जैसा वरदान ईश्वर ने ही दिया है। आप जैसे कमाल
के शासक सरलता से नहीं मिलते। हमें लगता है कि हमारे राज्यों में मित्रता से भी
गहरे सम्बन्ध उत्पन्न हो सकतें हैं। आपने तो हमारे हृदय पर ही प्रहार कर दिया। आप
से मिल कर अति प्रसन्न हैं हम।
विजयनन्दन: कुछ ऐसी ही स्तिथि हमारी भी है। आप से मिल कर सारी
चिंता व सारे तनाव भूल गए हैं हम। आप हमें किसी साक्षात् देवी का ही स्वरूप लगतीं
हैं।
विजयनन्दिनी: चलिए, राजभवन की दिशा में प्रस्थान करतें हैं।
आखिर कब तक इस गहरे कानन में खड़े रहने का इरादा है? निशा बहुत हो गई है, बेशक थक
गएँ होंगे। आपको विश्राम की आवश्यकता है।
विजयनन्दन: ज़रूर, चलिए। हम काफी थक गए हैं और ऐसा लगता है
की हमारे वीर सैनिकों को भी आराम की आवश्यकता है।
कथावाचक: दोनों मंत्र मुग्ध शासक और शासिका, बैठ कर अपने
रथों पर, सैनिकों के साथ, चल पड़ते हैं महल की ओर। तिलिस्म्गढ़ की कलाकारी और स्वाभाविकता
प्रभावित कर गई मायानगरी के कुमार को। हंसती-गाती प्रजा और राज्य की महक छू गई
उसके अन्त:करण को। जैसे-जैसे, दिन गुज़रे और समय का चक्र घूमा, दोनों विजयनन्दन और
विजयनन्दिनी के बीच गहरा होने लगा लगाव। देख उनकी यह द्वेष मोहब्बत, निर्णय लिया
प्रजा ने कर देने का अपने शासकों का विवाह और जोड़ देने का उन प्यार भरे दिलों को।
आ ही गई वह शुभ घड़ी, जब बजी शहनाई और हुआ कल्याण।
विजयनन्दिनी: किसने सोचा था कि यह सब इतना शीघ्र हो जाएगा? दिल
नहीं मानता कि हमारी शादी हो चुकी है। मुलाकात हुए थोड़ा भी वक्त नहीं हुआ कि आज
जुड़ गए यह दो हृदय सदा के लिए। वक्त तो रेत निकला जो हस्त से ही फिसल गया।
विजयनन्दन: घूम गया अब तो पूरी तरह से यह कालचक्र। आभास
नहीं हुआ कि कब हम दोनों के मध्य खिल उठा प्रेम का मनमोहक पुष्प। केवल हम ही नहीं
जुड़े, मगर जुड़ तो हमारे राज्य भी गए हैं। सत्य है कि यह दिवस तो अति मधुर हैं। मानो
कि शहद जैसी मिठास घुली हुई हो।
कथावाचक: अचानक, बेहोश हो कर गिर पड़ती है महारानी विजयनन्दिनी।
महल के अन्दर मच गई हलचल। लोग भागे इधर उधर और बुलाया चिकित्सक को। चिंतित हो गई
प्रजा और लगी घबराने। आकाश पड़ गया काला और नहीं था यह संकेत निराला। प्रजा के लिए
तो टूट पड़ा पर्वत सिर पर। दौड़ा आया मायानगरी का चिकित्सक और खबर पहुंची तिलिस्म्गढ़
तक।
चिकित्सक: अरे! कुमार, आपके राज्य में तो प्रसन्नता का
दीपक जल गया। आपको तो सबसे खुश होना चाहिए मगर उसकी जगह तो मुंह लटकाए खड़े हैं आप।
इस बात पर तो जश्न होना चाहिए। आखिर पिता जो बनने वाले हैं आप और रानी को सुख
प्राप्त होने वाला है माता बनने का। दोनों राज्यों को तो अपना उत्तराधिकारी
प्राप्त होने वाला है।
विजयनन्दन: क्या हम कोई स्वप्न देख रहे हैं? बहुत ही शुभ
समाचार सुनाया है आपने।धन्य हो गए हैं हम। इस खबर से तो छा जाएगी अब खुशहाली हर
स्थान पर।
चिकित्सक: उचित कथन है कुमार आपका। आपकी पत्नी को तो सबसे
अधिक हर्ष होने वाला है। कुछ घंटों में ही इनके यह बंद नेत्र खुल जाएँगे। अब
हमें कर लेना चाहिए प्रस्थान। आपको ही रखना है इनका ध्यान।
कथावाचक: सुन कर यह खुश खबरी, बजने लगी पास के पीतल के
बने मंदिर की घंटी और हवा में बह गई शिउली के फूल की महक। जल गई अगरबती और रौशन हो
गई समस्त नगरी। खुल गई सोती हुई रानी की आँखें और खबर सुनते ही, वह फूली न समाई। खिल
उठा चेहरा और दिल लगा हंसने। मुस्कान छा गई उसके थके हुए मन पर। घी के दीप लगे
जगमगाने और उल्लास फ़ैल गया चारों ओर। कुछ ही दिनों में घट गई शुभ घटना और जन्म हुआ
एक सुन्दर और सुशील राजकुमारी का। नाम रखा उसका विधर्बिका।
रौनिका: महारानी, सच में देखिए न
हमारी इस नन्ही सी परी को। लगता है कि बड़ी हो कर वीरता की अवतार बनेगी। योद्धा सा
तेज है इसका। राज्य के लिए पुण्य साबित होगी यह।
चारुमित्र: और नहीं तो क्या रानी जी। देखिए न इन्हें, किसी
हसीना से कम नहीं हैं। सौम्यता तो है ही इनकी मगर साथ ही साथ तो है झलक एक योद्धा
की इनके चेहरे पर। इनकी दिव्यजोती में कितनी चमक है। एकदम दिव्य छवि पाई है आपकी
पुत्री ने।
रूद्र: सही ही कहा है किसी ने, इनके
रहते तो राज्य का उत्थान होना निश्चित है। सुखद भाग्य है हमारा जो ऐसी सुशील और
भोली-भाली राजकुमारी ने हमारी भूमि पर जन्म लिया।
विषेश: ऐसा होना तो स्वाभाविक है।
आत्मजा हैं यह आप जैसी महान रानी की और हमारे कमाल के सम्राट विजयनन्दन की। यह तो
गुण है हमारी नन्ही कुमारी का।
विजयनन्दन:
इस प्यार के लिए आभारी हैं हम आप सभी के।
यह केवल हमारी और महारानी की सुता नहीं हैं अपितु पूर्ण राज्य की सुता व सुख-सम्पति
हैं। यह कन्या तो राज्य के सभी गुणों का मिश्रण है।
विजयनन्दिनी: उचित कथन है। हमारी प्रजा ही तो अद्भुत व गुणवान
है। अच्छे नाग्रिक हैं हमारी रियासत में सभी और खास है हर एक व्यक्ति में कुछ न
कुछ और वही तो इस फूल जैसी कुमारी में है। यह कन्या आप सब की बेटी तथा छवि है। इस
साम्राज्य की धरोहर है यह।
कथावाचक:
कई बरसातें आईं और चलीं गईं। सब कुछ सुखद
था। हँसते,गाते और झूमते हुए वक्त की सीमा कब आगे बढ़ गई, किसी को आभास तक नहीं हुआ।
विधर्बिका अब सात वर्ष की हो गई। वही नन्ही
सी राजकुमारी बन गई इन सात वर्षों में एक योद्धा कमाल की। नहीं था कोई जवाब उसकी
तीव्रता का। युद्ध कला में निपुण, जादू की उस्ताद थी वह। सात साल की छोटी सी आयु
में ही प्रभावित कर दिया उसने हर किसी को। दुर्ग तोडना था मनपसंद काम उसका। थी वह चंचल
लेकिन एक वीर नारी। था सब खुशहाल इन साथ वर्षों तक पर अचानक से कालगति घेर लाई काली
घटा। बुझा दीप तिमा का, छाया चारों ओर था अब तिमिर का पहरा। आक्रमण हो गया दुष्ट
महारानी चंडालिनी का।
प्रजा:
रक्षा करें हमारी। इन मासूमों की जो
शायद अब मारें जायेंगे इस चंडालिनी के कहर में घुटते-घुटते। बड़ी खूंखार लगती है वह।
बड़ी ही बेरहम और पत्थर दिल जादूगरनी है वह चंडालिनी। रक्षा करें हमारी, रक्षा करें
तिमा की।
कथावाचक:
छिड़ गई अब एक जंग। बड़ी मनहूस सी थी वह जंग
जिसने व्यवसाय नष्ट कर डाले हजारों के और बदल डाला पूरा नक्षा कभी के एक
हँसते-खेलते तिमा का। आसमान का रंग पड़ गया अब पूरी तरह से काला। मुरझा गए अब सारे
फूल-पतियाँ तथा नष्ट हो गई फसल। घर छिन गए मासूमों के।दुःख में डूबी थी प्रजा,
मुश्किल में फंस गए थे शासक।
चंडालिनी:
(राक्षसी अंदाज़ में हँसते हुए) अब लहर
गया झंडा इस शक्तिशाली, बलशाली रानी का। अब होगा इस हँसते और खेलते राज्य पर दुःख
के काले बादलों का पहरा। गूंजेगा अब हर स्थान पर नाम इस चंडालिनी का। अब हुकूमत
मेरी और राज मेरा। कट जाएगा अब वे हर एक शीश जो उठेगा महावीर चंडालिनी के खिलाफ।
कोई भाग न पाएगा जो सामने आएगा इस खडग की तेज़ धार के।
{एक दिन जंग के दौरान जब घिर गई
विजयनन्दिनी चंडालिनी के विक्राल सैनिकों से}
चंडालिनी:
ई ही ही, अरे ओ बेचारी महारानी, कुछ नहीं
बिगाड़ पाएगी तुझ जैसी नाज़ुक फूल की कली इस बलशाली एवं भव्य चंडालिनी का। जा, भीख माँग
तू अपने प्राणों की और गिर जा अपने इन क़दमों पर। वचन देती हूँ, कि तुझ जैसी चींटी
पर रहम कर जीवनदान दे दूंगी। बस मेरी सेवा में जुट जा।
विजयनन्दिनी: जंग छोड़ कर भाग जाने वालों को कायर कहते हैं
चंडालिनी। डर ईश्वर से और झुका ले अपना यह अहंकार से भरा हुआ मस्तक। आजा परमेश्वर
की क्षण में। आवश्य ही, माफ़ कर देंगे तुझे। बोझ कम हो जाएगा तेरे इन सभी कुकर्मों
का तेरे सर से। भले ही, हवाओं का रुख अभी के लिए, तेरे सामर्थय में है, लेकिन मत
भूल कि हवाओं का रुख किसी भी पल बदल सकता है। तू कभी नहीं जीत पाएगी दनुज जैसी
महारानी। अक्ल पर पत्थर पड़ चुका है तेरी,
जो निर्दोषों पर वार कर रही है।
चंडालिनी:
बस बहुत हुआ, औकात में रह कर बात कर
मूर्ख रानी। बड़ा भरोसा है ना तुझे अपने भगवान पर। तुझे लगता है कि चंडालिनी डर
जाएगी? नहीं, कभी नहीं होगा ऐसा। डर अपने काल से और रो अपनी ज़िन्दगी बचाने के लिए क्योंकि
अब तो तुझे तेरा पूज्य ईश्वर भी नहीं बचा सकता। चंडालिनी का काटा पानी भी नहीं
मांगता मूर्ख।
कथावाचक:
तभी अचानक, तीर चला चंडालिनी का। घिर गई
रानी और हो गए उस पर वार पर वार। आहात हो गई बुरी तरह से और लेने लगी अपनी आखरी
सांस। कब्र में लटक गए पैर बेचारी के। हो गया उस पर ब्रह्मास्त्र, अन्जनास्त्र और
विशैलास्त्र का वार| थे ये तीर बड़े ज़हरीले| थमने लग गईं
साँसे और रुकने को हो गईं दिल की धडकनें| चकित रह गया
देख कर भूमि पर कहीं लड़ रहा विजयनान्दन| गिर गए अस्त्र-शस्त्र
उसके हाथ से और दौड़ा वह बेसहारा हो कर अपनी हीरे से भी अनमोल पत्नी का रक्षण करने|
विजयनन्दिनी: नंदन हमारा अंत आ चुका है। यात्रा आपके साथ की अब
यहीं तक थी| बड़ा सुहाना रहा यह सफ़र। हँसते हुए हर एक
सुख-दुःख का सामना किया हमने। एक दूसरे की शक्ति बन कर रहे और कभी नहीं छोड़ा हमने एक दूसरे का साथ।
दुआ करते हैं, कि आप इस जंग को अंत तक लड़ेंगे और अपनी प्रजा को इस चंडालिनी के कहर
से छुड़ा कर रहेंगे। अपना और विधर्बिकाका ख्याल रखिएगा। राज्य का उत्थान अब आपके
हाथ में है।
विजयनन्दन: (खून के अश्रु रोते हुए, गहरे सदमे में) नहीं,
ऐसा नहीं हो सकता| आप हमें छोड़ कर नहीं जा सकतीं| जी नहीं
पाएँगे आपके बिना हम| हमने आपको ज़िन्दगी से भी ज्यादा
प्रेम किया और किस्मत ने ऐसा खेल खेला हमारे साथ। आपको जीवित होना ही होगा| नहीं!!! वचन
है हमारा कि जिसने भी आपकी हत्या की, उसका शीश अब हम कर देंगे धड़ से कलंक। ए कायर
चंडालिनी, छुपी कहाँ है? हिम्मत है तो सामने आ और युद्ध करl
चंडालिनी: अरे नहीं, बेचारे की तख्दीर धोखा दे गई।
मोहब्बत साथ छोड़ कर चली गई| अब चंडालिनी इतनी भी क्रूर कहाँ
जो इतने प्यार भरे दिलों को बिछड़ने के लिए मजबूर कर दे। अब जो एक-दूसरे पर छिड़कते
हैं अपनी जान, उन्हें तो मिला ही देना चाहिए रे। अब ज्यादा रो-रो कर तू न अपना खून
मत फुका। ओ तेरा काम आसान कर देगी अब यह दुष्ट चंडालिनी। शीष कलंक करना चाहता था
ना तू, तो यह ले तेरा ही शीष कलंक कर दिया जाए। तुझे भी तेरी आशिकी के पास पहुंचा
देती हूँ।
विजयनन्दन: तू कभी सफल नहीं हो पाएगी दुष्टता से भरी कायर।
बहुत अहंकार है ना तुझे खुद पर। इतना जान ले कि तूने मेरी पत्नी की जान छल से ली
है| उसे चक्रव्यूह में फंसा कर मारा है तूने और
तेरे इन शैतानों ने। अब तू एक निशस्त्र पर हमला करने चली है। इतना तो तुझे बता
देते हैं कि अगर तूने हमारी ज़िन्दगी भी हम से ले ली, तब भी तुझे कोई लाभ नहीं हो
पाएगा। जब तेरे पापों का घड़ा भरेगा, तब अंत हो जाएगा तेरा वह भी बहुत ही अधिक
दर्दनाक सा। तुझे सज़ा मिल कर रहेगी।
चंडालिनी: अब चाहे तू जो भी बोले, कर तो तू कुछ नहीं
पाएगा। सुकर्म किए गए हैं तेरे द्वारा जो तुझे अपनी उस जान से भी प्रिय चींटी से
मिलने का अवसर मिल गया। जा, तेरी कामना पूरी हुई। बिगाड़ क्या लेगा मेरा। महीश, आवाहन
करती है यह चंडालिनी तुम्हारा। अपने दर्शन दो और इस चींटे को मसल डालो। बना दो
इसको स्वर्ग का वासी। बड़ा आया चंडालिनी को डराने वाला। कर दो पत्ता साफ़ इसका।
महीश: जो आज्ञा आपकी, सर्वशक्तिशाली चंडालिनी
साहिबा। अब यह कतई नहीं भाग पाएगा। ले तेरा अंत आ गया।
कथावाचक: महीश विजयनन्दन को गिरा देता है धकेल कर दूर।
हमला भी था इतना ज़ोरदार की बेचारा विजयनन्दन हो गया बुरी तरह घायल। खड़ा ना रह पाया
और गिर पड़ा धरा पर। बहने लग गया रुधिर माई के उस लाल का। प्राण छिन गए और कह दिया
मायानगरी के वीर सम्राट ने संसार को अपना अंतिम अलविदा। मुरझा गई ख़ुशी और रोने लग
गई मधुअचरिणी नदी। जल भी गया सूख। सूर्यास्त हो गया सदा के लिए। रोने की ध्वनि
सुनाई देती हर स्थान पर और कष्ट तथा पीड़ा के ही दृश्य बाकि रह गए देखने के लिए।
राजकुमारी विधर्बिकाही थी अब एक उम्मीद| लोगों का अनुमान निकला सच्चा क्योंकि विधर्बिका
ही थी रक्षक राज्य की। मंत्रीगण चंडालिनी से छुपते-छुपाते ले गए विधर्बिका को दूर
के मित्र साम्राज्य चंदंवादी में। बच गई तिमा की वारिस मगर किस्मत फूट गई प्रजा की।
हर जगह मन रहा था केवल और केवल शोकl
मंत्रीगण: जाइए कुमारी विधार्बिका| अब आप ही है अँधेरे की लकड़ी तिमा की| आप से ही जुड़ी है उम्मीद हजारों की| आशा है हम सबकी कि अब लौट कर आएंगी आप और मुक्त
कर देंगी हम मासूमों को चंडालिनी से| समाप्ति हो जाएगी इस मातम की जिसे फैलाया है उस
दुष्ट ने| आपको
यहाँ रहना होगा और खुद को चंडालिनी पर आक्रमण करने के लिए करना होगा तैयार|
विधर्बिका: वचन देती है विधर्बिका अपनी प्रजा को इस बात
का| कमर कस
ली है हमने कि चंडालिनी को मुंह तोड़ जवाब देंगे और प्रतिशोध ले कर रहेंगे अपने
माता-पिता की मृत्यु का| भले ही बोने वाली वह है मगर काटेंगे तो अब हम ही| योद्धा हैं और निश्चिन्त रूप से कह रहे हैं हम
कि अब हो कर रहेगा इस असि का उस पर वार| बहुत बड़ी विपदा बुला ली है तूने चंडालिनी हमारी
सुख शांति पर अपनी यह कुदृष्टि डाल कर| वह समय दूर नहीं जब यह विधर्बिका तुझे तेरा हर
एक पाप याद दिलाएगी और समस्त अंत कर डालेगी तेरा और तेरे पूरे वंश का|
सोम्मुखी: आइए, यात्रा लम्बी
हुई होगी| आप
की यह स्थिति देख कर बहुत दुःख हुआ| यह सब देख कर रोक ही नहीं पा रहे हैं हम अपने इन आंसुओं को| अब मित्र ही एक दूसरे के काम आएँगे| अब यह ही आपका घर है| कठिनाइयाँ अनगिनत हैं आपकी राह में लेकिन डटे रहना है आपको| हार मान लेने का विकल्प नहीं है आप के पास| प्रतिशोध तो लेना ही होगा आपको|
विधर्बिका: सही कहा आपने महारानी सोम्मुखी| चंडालिनी को उसके मुकाम तक पहुंचा कर ही रहेंगे हम| बचेगी नहीं अब वह चंडालिनी| आज से बल्कि अभी से हम इस महा कार्य की तैयारी
में जुट जाएँगे| पूर्ण विश्वास है हमें स्वयं पर| तेरा अंत निकट है|
सोम्मुखी: प्रभावित हैं हम आपका यह साहस , यह गुरुर और
यह हिम्मत देख कर| आज से आपके प्रशिक्षण की ज़िमेदारी हमारी है| आशा करते हैं की खरी उतरेंगी आप इस परीक्षा की
कसौटी पर|
पुलकेशिन: आप में सच में एक
असली योद्धा की छवि है| चंडालिनी जैसी शक्तिशाली जादूगरनी को हराने के
लिए आपको अपनी युद्धकला अच्छी तरह से पड़ेगी तराशनी| इजाज़त देते हैं हम आपको करने का यहाँ पर एक सेना
का निर्माण| समझें
आप हमें अपना ही परिवार|
विधर्बिका: शब्दों में बयान नहीं दे सकते कि कितने आभारी
हैं आपके| मुश्किल में सहारा दिया आपने हमें और हमारे तिमा
को| डूबते को तिनके का सहारा भी बहुत होता है|
कथावाचक: शुरू कर दिया विधर्बिका ने सैन्य निर्माण| मिल गया सहयोग उसे चांदी के बने राज्य चंदंवादी
के शासकों का| लगा लिए उसने पूरे १५ वर्ष करने में एक
शूरवीर सेना का निर्माण| फौलादी थे सीने उसके और फौलादी
थीं बाहें| मन में था साहस उसके और दौड़ रहा था बल उसके
रघुओं में|
तिमा
की प्रजा: अब और नहीं
रहा जाता| कैसे
सहें अब यह अत्याचार उस दुष्ट चंडालिनी का| कलेजा फट
चुका है हमारा करते हुए उसकी सेवा| अब गरीबी ही है हमारी जिसने कर डाला है हम सब को
ठन-ठन गोपाल| न
पैसा है हमारे पास न भर सकते हैं अब हम अपने इन भूखे अमाश्यों को| जीना हराम कर
रखा है उसने हमारा| सारे घर तहस नहस कर दिए हैं उसने| जो भी फसल उगती है, सारी की सारी उड़ा ले जाते
हैं उसके क्रूर सैनिक| अब सारा धन भी ख़त्म हो चुका है लेकिन चंडालिनी
ने तीन गुना कर देने के लिए मजबूर कर दिया है| उसकी माँग तो अब बड़ती ही जा रही है| कर न देने वाले को सौ कोड़े मारती है वह अभद्र
चंडालिनी| निर्दोषों की हत्या करना है मनपसंद काम उसका| नर्कबना डाला उसने हमारे पूरे हँसते-खेलते और
सुखद तिमा को| कभी
यहाँ पर रौशनी हुआ करती थी और सडकों पर चहल-पहल लेकिन अब तो खटका लगा रहता है अपने
ही घर से बाहर निकलने के लिए| रक्षा करें हमारी प्रभु, बचालें हमें|
कथावाचक: तभी अम्बर से होती है एक
भविष्यवाणी|
भविष्यवाणी: तिमा की प्रजा, अब दुखों का अंत आने वाला
है| जिसने भंग कर डाली थी सुख-शांति तुम्हारी अब
मिलेगी उस को अपने कर्मों की सज़ा| उसका संहार
कर देने वाली, तिमा की रक्षक आ रही है| अब वही है उम्मीद तुम्हारी, मसीहा तुम्हारी| तुम्हे मुक्त कर देने वाली निकट है| इन सारे कष्टों का घड़ा अब भर चुका है और टूटते
ही लौट आएगी सुख-शांति तुम्हारे राज्य में|
प्रजा: लाख-लाख शुक्र है देवता का जो
उन्होंने हमें मुक्त कर डाला चंडालिनी के कहर से| आवश्य ही वह रक्षक नंदन और नंदिनी की पुत्री वीर
राजकुमारी विधर्बिकाहै| वह ही आज़ाद करेगी अब हम सब को और कर डालेगी उस
नाग स्वाभाव चंडालिनी का दर्दनाक अंत|
कथावाचक: तभी बज उठता है जंग का बिगुल| कर लेती है एक रण-चंडी का रूप धारण विधार्बिका| युद्ध की ललकार सुनते ही काँप उठती है चंडालिनी
की सेना| देख
अपने राज्य की धरोहर, अपनी विधर्बिकाको, दिल खुश हो जाता है प्रजा का और फ़ैल जाती
है क्रांति की आवाज़ हर दिशा में| आग बबूला हो कर निकल आती है बाहर चंडालिनी अपने
अस्त्र शास्त्र ले कर|
विधर्बिका: तेरे पापों का घड़ा अब भर गया है
चंडालिनी और उसे चकना चूर करने के लिए आ गई है अब यह विधार्बिका| बहुत कष्ट दिए हैं न तूने इन निर्दोष मासूमों को| अब बताएगी यह
विधर्बिकातुझे कि क्या होता है दर्द का असली मतलब| तेरे पापों की सज़ा तुझे अब देंगे हम| खून उतर आया है हमरे इन नयनों में और तुझ से ही
प्रतिशोध ले कर शांत बैठेंगे हम| आगे बढ़ो और कर डालो आक्रमण इस चंडालिनी पर| आज तेरा पत्ता साफ़ हो कर ही रहेगा| देख रही है, बिजली कड़क रही है और हवाओं का रुख
बह रहा है हमारे सामर्थय में| जान ले चंडालिनी कि जब काल आता है तो साथ
समुद्रों को पार कर आता है| अब बचेगी नहीं तू|
चंडालिनी: (जादुई कालीन पर उड़ते हुए) ऐ
विधार्बिका, इतने हवाई किले मत बना वर्ना परिणाम निराला नहीं होगा| याद है तुझे न वह हश्र जो किया था मैंने तेरे
राज्य का| जा
चली जा यहाँ से इससे पहले कि,
विधर्बिका: कर क्या लेगी तू चंडालिनी हमारा| बताएँगे तो अब हम तुझे| डूब कर मर जाना चाहिए तुझे चुल्लू भर के पानी
में चंडालिनी| तेरा
किस्सा तो समाप्त कर के रहेंगे| जला डालेंगे तुझे इस प्रतिशोध की पावक में|
कथावाचक: तभी जादू से ले आई विधर्बिका आग और बवंडर
का सह्लाब| जला
कर राख कर डाला अपने वैरी सैनिकों को| तान ली भुकटी अपनी और मिला दिया धूल में अपने
रिपुओं को| क्रोध की ज्वाला से नष्ट कर दिए सारे हथियार| तोड़ डाला पूरा युद्ध व्यूह चंडालिनी का और बुझा
डाला दीप उम्मीद का| निकाल ली करवाल उसने और कलंक कर डाले मस्तक
क्षत्रुओं के|
विधर्बिका: देख रही है चंडालिनी, इस अनल को, इस वात
को, इस सलिल को और मयान से निकले कृपाण को? वस्तुएं अनेक लेकिन मकसद एक, तेरी
तबाही| अब
तो तू गई| (फुक
मार कर दूर स्थान पर उड़ा देती है चंडालिनी को| बुलबुले में सोख कर उसकी समस्त शक्तियां, कलंक
कर दिया मस्तक उसकाl)
प्रजा: (उल्लास के अश्रु रोते हुए) धन्य
हैं आपके राजकुमारी विधर्बिकाजो आप ने सिर पर कफ़न बाँध कर दिला दिया कुकर्मों का
दंड उस दरिंदी चंडालिनी को| देखिए न क्या हश्र कर डाला है उसने हमारे तिमा
का| हँसना ही भूल गए थे क्योंकि कलेजे जो फट चुके थे
हमारे|
विधर्बिका: अब लाभ नहीं है गढ़े मुर्दे उखाड़ने का| प्रसन्न हैं हम यह देख कर कि हमारी प्रिय प्रजा
को भरोसा है हम पर| यह घी के दिए जलाने का समय है| फ़िलहाल के लिए विकास की सीढियाँ चढ़ने के लिए
कंधे से कन्धा मिलाना पड़ेगा| स्थिति ठीक नहीं है व सुधार लेना अनिवार्य है|
कथावाचक: अब बन गई विधर्बिका महारानी तिलिस्मगढ़ की
और सौंप दिया मायानगरी का राज्य अपने चहीते मंत्री वीरलम्भ को| गुज़र गए कई दशक और होने लग गया दोनों राज्यों का
उत्कर्ष| हालात गए सुधर और सुविधाएँ बन गईं बहतर| परन्तु बाकि था कुछ काम करना क्योंकि कुछ लोग थे
ऐसे जिन के बीच नहीं थी एकता और सक्षम नहीं थे राज्य
प्राकृतिक दुर्घटनाओं का प्रकोप सहने के लिए| तभी, आया
मायानगरी से एक शुभ सामाचार|
वानीषा: देखिए ना इस सुखों की तरंग
को| कुछ
ज्यादा ही मधुर दिवस है आज| सौह्भाग्य है जो एक प्रभावशाली व रूप से झीला
आत्मज प्राप्त किया है हमने| इसके यह गहरे नीले से लोचन, फूले हुए से गाल,
घने केश और चहरे पर झलकती हुई मासूमियत| स्वाभाव ही ऐसा कि बस जीत ही ले|
विपलवदेव: सत्य है, इस वीर के अन्दर
हूबहू हमारे महावीर सम्राट विजयनन्दन की छवि है| देखते ही, मन में हमारे वीर पुर्ख का चित्र उत्पन्न
हो गया है| जो
दिखे एकदम विजयनन्दन जैसा, जिसमें हो उनकी झलक, आज से वह कहलाएगा विजय| यह अत्यंत शक्तिशाली तथा बलशाली बनेगा|
प्रजा(मायानगरी): राजकुमार विजय की जय| बहुत ही खुशकिस्मत हैं जो सम्राट विजयनन्दन का
पुनर्जन्म हमें मिला| अत्यंत शुभ घडी है यह|
कथावाचक: विजय का जन्म होते हुए ही, आ गई
तिलिस्म्गढ़ से एक मनमोहक खुश खबरी| लिया जन्म एक खुबसूरत सी कन्या ने|
वैशालीमा: देखिए ना, ऐसा लगता है कि अब
तो भाग्य ही खुल गया| इस कन्या का रूप कितना अद्भुत है| मन मोह लिया इसने| सच में, इस को जो भी देखेगा, मन के सारे तनाव ही
भूल जाएगा|
वंगमसिंह: सत्य वचन है रानी साहिबा| नेत्र देखिए न इनके, कैसे मोतियों की तरह चमक
रहे हैं| वर्ण
भी इतना गोरा, बिलकुल बर्फ जैसा है| ओष्ठ देखिए ना इस परी के, गुलाब के जैसे लाल हैं| इनके यह केश एकदम रेशम जैसे हैं, कितने मुलायम
से| यह
मासूम सा चहरा तो मन लुभा देने वाला है|
वैशालीमा: कैसे जवाहरातों जैसी चमक रही है यह बालिका| देखते ही याद आ गया बचपन अपना| झलक भी तो है एकदम विजयनन्दिनी की| बस चले, तो यह समस्त विश्व जीत कर ले जाए| ओजस्वी और मनोहर है स्वाभाव से| विजयनन्दिनी की पुनर्जन्म आज से कहलाएगी विजयवती|
प्रजा(तिलिस्मगढ़): इस को ही कहते हैं शायद से वरदान परमेश्वर का| हमारे राज्य की धरा पर ऐसी प्रतिभाशाली कन्या ने
जन्म लिया है| किस्मत खुल जाएगी जब इसके जैसी महारानी मिलेगी
और चलेगा राज इसका| बिल्कुल महारानी विजयनन्दिनी पर गई है| कितना हर्ष हो रहा है यह विचार करते ही कि
महारानी विजयनन्दिनी ने पुनः जन्म लिया हमारी इस धरा पर| किसी की नज़र ना लगे काश|
कथावाचक: बज गई हर जगह शहनाई| हो गए मायानगरी और तिलिस्मगढ़, दोनों के दोनों
रौशन| आ गए
ख़ुशी, हर्ष और उल्लास से जगमगाते हुए दिवस| खुल गया भाग्य दोनों राज्यों का पाते ही अपने
प्रभावशाली, सक्षम और सौम्य उतराधिकारियों को| झूम उठ गई दोनों रियासतों की प्रजा| सब हो गया मंगलमय और बजने लग गए वीणे| होने लग गई बरसात आसमान से गुढ़हल के फूलों की| आने लग गई महक| मधुअचरिणी के जल की कलकल सुनाई देने लग गई और तट
के पास उड़ रही मछलियाँ लग गईं मस्ती से मचल ने| समुद्र में तैर रहे गंगा-चिल्लियों के मिठास से
भरे स्वर लग गए गूंजने| साथ मिल गए दोनों राज्य और हो गया एक महा जलसा| हुआ उस जलसे में नाच-गाना तथा जादू का खेल| राज्यों का मूल नृत्य था हन्समनात्यम जिसमें
नाचते थे हंस की भंगिमा में| हन्समनात्यम की तो बात ही थी बहुत निराली| प्रकृति के एक बड़े अनमोल तत्व को नृत्य करते हुए
देखने का मिलता था अवसर| खेल में भी था भरा हुआ जादू| कालीन पर उड़ते-उड़ते कब कहाँ से कहाँ पहुँच जाएँ,
ज्ञात ही नहीं होता था| खेल में होती थी दौड़ जिसके अन्दर अन्य
प्रतियोगियों को ब्रह्मित करने के लिए की जाती थी जादुई स्थानों की रचना| जो भी खिलाडी बच भागा ब्रह्मों से और पहुँच गया
अंतिम रेखा तक, हो जाती थी उसकी विजय| खाना भी बनाया जाता था जादू से|
{७
वर्ष बाद}
कथावाचक: अब बड़े हो गए विजय और विजयवती| दोनों में हो गई मित्रता गहरी| बन गए एक दूसरे के सहचर सच्चे| हर सुबह, जब खिल उठता था रवि गगन में, निकल आते
थे महल से बाहर दोनों के दोनों| ले कर दोस्तों की टोली, पहुँच जाते थे समुद्र के
कूल पर और वहीँ चलती रहती उनकी बाल लीला न्यारी|
विजय: अरे, देखो निकल आया है दिन तो अब निकल आए
हैं हम ले कर यह झुण्ड| आज क्या कारनामा करना है दोस्तों? अरे! जल्दी
बोलो न, क्यों ना आज समुद्र के तट पर गंगा-चिल्लियों की तरह खेला जाए?
मयूर(एक
मित्र): हाँ, हाँ, क्या मस्त मौला खेल
है ना यह| आज
क्यों न उड़ा जाए इस तूफानी हवा में उन पक्षियों की तरह| हो जाए अब इन पंखों की तीव्र सी होड़ा-होड़ी| देखते हैं कि किसका होता है क्षितिज से मिलन?
सादवी(दूसरी
मित्र): हाँ यार, इस मयूर की माँग आज पूरी
ही कर देते हैं, देखना आकाश से मिलन ना मेरा ही होगा|
हाकिम(तीसरा
मित्र): चलो, खेल शुरू करते हैं, फिर ज्ञात
होगा की सर्व-श्रेष्ठ गंगा-चिल्ली कौन है| आज तो यह ऊंचाई हमारे आगे झुकेगी|
निलीमा(चौथी
मित्र): तो फिर, हम जीतने के लिए तैयार हैं| मस्त होने वाली है अब तो यह प्रतिस्पर्धा| आज वह होगा जो कभी नहीं हुआ हो| चलो|
विजयवती: चलो, तीन गिनने पर| १,२,३ छूमंतर हो जाओ, चलो उड़ते हैं उन्मुक्त हो
कर| क्षितिज, हम आ रहे हैं|
कथावाचक: जादू से बन कर गंगा-चिल्ली, भर ली आकाश में उड़ान
नन्हे बालकों ने| दौड़ पड़े छूने के लिए सीमाहीन आसमान की ऊँचाइयाँ और
कर लिया मिलन क्षितिज से|
विजयवती: अरे! आनंद ही आ गया| अब क्या किया जाए, क्यों ना जादू से बर्फ बना कर
उसे अपने नियंत्रण में लाया जाए?
गुंजन(पाँचवी
मित्र): हाँ विजयवती, अति प्रशंसनिय विचार
है तुम्हारा| चलो
अब कुछ बर्फीला हो जाए| जमा देते हैं बर्फ का पहरा|
मृगेंद्र(छट्टा
मित्र): तो चलो, इंतज़ार किसका करना है?
कथावाचक: बाल टोली जादू से कर देती है रत्नाकर के तीर पर
बर्फ़बारी| खेल
भी खेला बहुत ही शानदार| दे कर बर्फ को आकार, बना लिया बर्फ से बना महल,
बर्फीला फवारा, बर्फीले बगुले, सारस, फाख्ता, मोर, हवासील, तोते, गीदढ़, शेर और
हिरण| बसा
लिया बच्चों ने चिड़ियाघर बर्फ का| मज़ा आ गया जब आरम्भ हो गया बर्फ के खण्डों का खेल| समुद्र का तट भी था कितना रंगीन और चटकीला| खिलते थे रंग बदलने वाले सुमन| जब डुपकी लगाती बाल टोली,तब किलकारियों से
गूंजता था सागर| तभी
आ जाते हैं तिमा के मंत्रीगण देने कोई सूचना महत्वपूर्ण|
मंत्रीगण: राजकुमार विजय एवं राजकुमारी विजयवती, करना
होगा अब आप को प्रस्थान स्वर्णिमलोक की सीमा के वन के लिए| आदेश है शासकों का, भेज देने के लिए आप दोनों को
करने युद्ध कला का अभ्यास|
विजयवती: वाह! आखिर मिल ही गया मौका सीखने का युद्धकला
और बढ़ा लेने का अपने इस ज्ञान कोष को| बहुत ही पावन समाचार सुनाया है|
विजय: रोक ही नहीं पा रहे हैं अब हम अपना
उतावलापन| जल्द
से जल्द आरम्भ करना है हमें धनुर्विद्या का अभ्यास| घुड़सवारी की
तो बात होगी ही लाजवाब|
विजयवती: अब शायद से सक्षम हो जाएँगे हम करने में रक्षण
अपनी इस रियासत का| सदा से था स्वप्न हमारा बन्ने का एक तलवारबाज़
कमाल की|
सभी
मित्र: शुभकामनाएं इस प्रशिक्षण के लिए| सत्य है कि याद बहुत आएगी अपने इन २ परम मीतों
की|
विजय
और विजयवती: शुक्रिया, अनमोल हैं यह
शुभकामनाएं| शायद
से अब मिलेंगे हम कई बरसातों बाद| ध्यान रखना अपना और अपने परिवार का|
कथावाचक: रथ यात्रा के समाप्त हो जाने पर, पहुँच जाते
हैं स्वर्णिमलोक की सीमा पर स्थित विपिन के भीतर जहां हो जाती है मुलाक़ात उनकी वरद
से|
वरद: स्वागत है, इस शिवीर में| बदल जाएगी ज़िन्दगी, करते ही शिवीर में प्रवेश| मैं हूँ वरद| इस शिवीर की
गुरुमाँ(शिक्षिका) देवी ब्रह्मचरिणी का बेटा| यहाँ की राह लम्बी है मगर मंज़िल कम नहीं है किसी
रत्न से| मुकाम
केवल युद्ध कला में निपुणता नहीं है अपितु साथ ही संसार का प्रबोधन भी है|
विजय: पणीपाल वरद| हम हैं विजय और यह हैं विजय्वती| इस स्वागत के लिए आभारी हैं तुम्हारे|
कथावाचक: कानन तो एक ही था कई रियासतों तक खिंचा हुआ
लेकिन जो दृश्य था स्वर्णिमलोक के भाग का| थीं चट्टानें ही चट्टानें हर जगह जिनकी चढ़ाई
करना था बेहद कठिन| विटप ही विटप दिखाई देते थे चक्षुओं को| पेड़ भी थे आकाश को स्पर्श कर लेने वाले| रजनी होते ही, निकल आते थे ज़हरीले भुजंग और उड़ने
लगते थे चंगादङ| था
वह घना जंगल करियों का निकेत| चारों ओर था गिरियों से घिरा हुआ| रहता था उधर भेड़ियों और गीदड़ों का झुण्ड| था वह जंगल एकदम उपयुक्त सीखने के लिए युद्ध कला| तभी आ पहुँचती है वहां पर ब्रह्मचरिणी|
ब्रह्मचरिणी: (मातृत्व भरी आँखों से) आशीष है तुम सब शूरवीरों
को| तुम्हे संसार में सदाचार की शैली दिखाने
वाली, एकाग्रता दर्शाने वाली, शासन की प्रलाणी समझाने वाली, अस्त्र-शस्त्र का
ज्ञान देने वाली, इंद्रजाल तराशने वाली ब्रह्मचरिणी हूँ मैं| एक कुशल व
प्रारब्धवान शासक बन्ने में केवल वह सक्षम हो सकता है, जिस को हो ज्ञान शासक होने
के अर्थ का| हो उसके लिए प्रजा का ओहदा सबसे ऊँचा तथा कर
दे सेवा करने में जीवन व्यतीत अपना| जो कुर्बान
कर दे अपनी ज़िन्दगी राज्य के संरक्षण के लिए, जिस के पास हो उचित व अनुचित की
ज्ञप्ति, जो खड़ा रहे न्याय का हस्त पकड़े व जिसमें हो मोहब्बत, शराफत, साहस एवं परोपकार का भाव, वह कहलाता है एक
प्रतिभाशाली व समृद्ध महीप|
सभी
विद्यार्थी: प्रणाम गुरुमाँ, परमेश्वर
की महिमा है जो आप हमारी ज्ञानबोधक है| हम प्रतिज्ञा
लेते हैं कि आप को निराश नहीं करेंगे| प्रत्येक
दुराचार से रहेंगे दूरस्थ, लोभ से रहेंगे मुक्त, सत्य के मार्ग पर चलने वाले
बनेंगे हम, रखेंगे परोपकार की भावना जाग्रत अपने मन में सदा के लिए, न्याय को सर्वप्रथम
प्रधानता देंगे हम, कौशलों को पहचानने वाले बनेगे हम, संस्कारों की राह चुनेंगे
हम, दुखों का संहार करेंगे व सुख को बाटेंगे हम, स्नेह करेंगे प्रत्येक जीव-जंतु
से तथा निर्दोषों पर कभी आंच न आने देंगे हम| करते हैं
ग्रहण यह शपथ कि अपने जनों से पूर्व सहेंगे हर वार सीने पर अपने|
ब्रह्मचरिणी: प्रभावित कर दिया है आपके इन सद विचारों ने मुझे| पक्के इरादें
हैं हर किसी के तथा कुछ कर दिखानें की है चाह| यह छोटे से
हृदय भी कितने पवित्र व साफ़ हैं| सीखने की
लालसा साफ़-साफ़ नज़र आती है| आशा करती हूँ की एक ज्ञान का पद दिखाने
वाली और इन खूबियों को तराशने वाली शिक्षिका बनूँ|
कथावाचक: आदि हो गया प्रशिक्षण| चलने लग गए
नन्हे से कदम रौशनी के रास्ते पर| साबित हो गई ब्रह्मचरिणी
एक कामयाब शिक्षिका जिसने प्रदान किया ज्ञान और तराशा हर एक हुनर को| जला दिया
चिराग ज्ञान का हर किसी के मस्तिष्क में| प्रोत्साहित
किया अपने शागिर्दों को अपनाने के लिए धर्म का मार्ग|
ब्रह्मचरिणी: युद्ध कला एक ऐसा माध्यम है जिस से प्रजा की की
जा सकती है हिफाज़त| है हर एक शासक के लिए अनिवार्य
होना युद्ध कौशल में कुशल| समझना होगा कुदरत की विभूति को| कुदरत ही बन
जाता है मददगार सबसे बड़ा जब हो जाए शस्त्रों की कमी| देखने में तो हैं यह दूप, पत्र, कंकड़, कुसुम आदि
बहुत ही सामान्य है किन्तु जब समझ लिया जाए इनके पराक्रम(बल) को, तो दिखा सकते हैं
यह चमत्कार जंग के मैदान पर| केवल
आवश्यकता है करने की अपने मन को एकाग्र| ध्यान लगाना
ही है सबसे बड़ी शक्ति एक योद्धा की| इसलिए होना
चाहिए अटूट एक योद्धा के ध्यान को| (दूप को एक
महावीर शस्त्र में परिवर्तित करते हुए करती है एक ज़ोरदार सा वार), आज़मा लिया ना एक
साधारण से दूप के चौंका देने वाले पराक्रम को|
कथावाचक: जैसे-जैसे बीतने को हो गई अवधि, हो गई विजयवती तलवारबाजी
में प्रवीण| बन बरछी, ढाल, कृपाण और कटारी उसकी सहेलियां
गईं| नहीं टिक सकता था कोई विजय की तीरंदाजी के
आगे| भरते थे पानी उन दोनों के जादू और घुड़सवारी के
समक्ष| थे वे ब्रह्मचरिणी के लिए सबसे अतूल्य तथा
बहुमूल्य ज्वाहरात|
ब्रह्मचरिणी: गर्व है मुझे अपने इन सब विद्यार्थियों पर| हर कोई है इस
शिवीर में श्रेष्ठ तथा रखता है अपने भीतर एक कौशल महान| आशा है कि इस
शिवीर में एकत्रित किया हुआ ज्ञान होगा लाभदायक असल ज़िन्दगी में| सर्वदा याद
रखना कि एक गुरु का ज्ञान होता है बहते सागर के समान| उस समुद्र से
जल रूपी ज्ञान संग्रह करना होता है विद्यार्थी का ही काम| सब ही हैं
ख़ास लेकिन जिनका प्रदर्शन रहा है सबसे संतोषजनक, वे दो नाम हैं विजय और विजयवती| नाज़ है तुम
दोनों पर|
सभी
विद्यार्थी: बधाई हो विजयवती और विजय,
बन्ने के लिए सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी|
ब्रह्मचरिणी: विजयवती, प्रभावित कर दिया है तुम्हारी
तलवारबाज़ी और जादू ने| बहुत माहिर हो गई हो तुम| सच में, ऐसा
लगता है की जीवन सफ़ल हो गया|
विजयवती: ऐसा मत कहिए गुरु माँ| अब हम आपके
द्वारा ही उभारी गईं योद्धा हैं| आपने ही तो
इस तलवार पर धार लगाई है| इस सबका श्रेय आपको ही तो जाता
है|
ब्रह्मचरिणी: विजय, गौरव हो तुम इस शिवीर के| एक जाबाज़
तीरंदाज़ और घुड़सवार बन गए हो तुम| तुम्हारी
दिलेरी छू गई है मेरे दिल को| शान हो तुम
इस शिवीर की|
विजय: आपके ही सिखाए हुए छात्र हैं| आपकी ही लगन
और स्नेह ने हमें यहाँ तक पहुंचाया है| इन हाथों में
धनुष पकड़ाने वाली भी तो आप ही हैं| तो फ़िर गौरव
भी तो आप ही हुईं|
ब्रह्मचरिणी: स्मरण रखना इस बात का कि इस शिवीर से निकलने के
पश्चात भी, ज्ञान का संग्रह रहेगा जारी| शिवीर की
शिक्षा समाप्त हो गई है लेकिन बचा है बहुत कुछ सीखने के लिए| इस लम्बी
यात्रा के लिए शुभकामनाएँ|
कथावाचक: पूर्ण कर अपना अभ्यास, लौट आए दोनों अपने राज्यों
में| देखते ही यह शुभ आगमन, बहने लग गई तरंग हर्ष
की| मधुअचरिणी के गर्भ में करते हुए जल यात्रा,
दिखे नज़ारे गुनगुनाते हुए केवट और मछुआरों के| कुछ थीं
मछलियाँ उड़ने वालीं आकाश में तथा कुछ फुंकतीं थीं गहरे सलिल में| आसमान हो चला
था गुलाबी वर्ण का| गा रहीं थीं गीत फसलें और नृत्य
कर रहे थे मराल| सीमाहीन गगन में घूम रहे थे सारंग तोते हो कर
उन्मुक्त| गूंज रहीं थीं किलकारियाँ हुदहुदों की| लपक रही थी
घास महुए से| किया प्रकृति ने अभिनंदन महान| विजयवती चली
तिलिस्मगढ़ और विजय पहुँचा मायानगरी|
रागिनी(एक
स्त्री): अरे! देखो, तिलिस्मगढ़ की
राजकुमारी आई है| तलवारबाज़ी में प्रवीण इंद्रजाल की उस्ताद आई है| आओ और बजाओ अपने राग इस राज्य की भावी महारानी के स्वागत में|
चंदरिया(दूसरी
स्त्री): देखो रे देखो, कैसी माणिक जैसी चमक
रही है और अनल जैसी दमक रही है| कितनी हसीन
तथा चंचल लग रही है| अति हंसमुख है यह| नज़र ना लग
जाए|
गुंजन: लौट आई रे लौट आई, मेरी सखी लौट आई| अरे ओ वती,
कितनी सुन्दर लग रही है| देख ना, कैसे योद्धा के तेज से
झलक रही है तू| कितनी शांत प्रकृति है तेरी| आनंद ही आ
गया|
विजयवती: शुक्रिया, इस अभिनंदन के लिए| अब इतने भी
कहाँ बदल गए हम| सत्य कहें तो चित्त प्रफुल्लित हो गया है हमारा, ९ वर्ष
पश्चात अपने अति प्रिय तिलिस्मगढ़ में आ कर| धन्यवाद
रागिनी और चंदरिया चाची इस प्रेम के लिए|
निलीमा: अरे, यह स्वप्न है या हकीकत? क्या यह वही
बालिका है जो ९ वर्ष पहले रत्नाकर के कूल पर दिखाती थी अपनी बाल लीला न्यारी| क्या यह
गंगा-चिल्लियों की भाति उड़ने वाली और बर्फ से पखेरू बनाने वाली ही राजकुमारी है?
आखिर तिलिस्मगढ़ की याद आ ही गई|
मयूर: और नहीं तो क्या, भूल ही गई थी हमें| वैसे अब बता
भी दे कि क्या-क्या सीख कर आई है उस शिवीर में| थोड़ा ज्ञान
अब तू हमको भी देदे| सत्य वचन है कि याद तो तेरी बहुत
आई थी राजकुमारी विजयवती|
विजयवती: ओ गुंजन, निलीमा, मयूर, अब तुम लोग बस भी करो
ना| और कितना बोलोगे यह सब? क्या लगता है तुम्हे, हम अपने ही
तिलिस्मगढ़ को तथा तुम जैसे जिग्री दोस्तों को यूँ ही भूल जाएँगे? गलत लगता है तुम
सब को| रही बात शिवीर के ज्ञान की तो बोलो, कब से आना चाहोगे| बिल्कुल
नहीं बदले हो| वैसे के वैसे ही हमारे उत्कृष्ट मित्र हो| याद बहुत आई
तुम्हारी|ईश्वर के आभारी हैं जो तुम हमारे मीत हो|
गुंजन: अरे, बाद में सिखा दियो| इतने समय
बाद आई है, तो क्या अपने महल नहीं जाएगी? महाराज और महारानी से मिलने का मन नहीं
है क्या तेरा?
मयूर: हाँ, तेरा इंतज़ार कर रहे होंगे| अब चली भी
जा वहाँ पर| आखिर, कोई भी अपनी आत्मजा से वर्षों बाद मिलने के लिए उतावला होगा ही|
विजयवती: हाँ, आखिर यह हम भूल ही कैसे सकते हैं? महल तो
जाना ही होगा| चलो, साथ नहीं आओगे हमारे?
कथावाचक: प्रस्थान करती है अपने परिवार से मिलने के लिए
उत्सुक राजकुमारी, अपने सहचरों सहित| सोने और
कांच से बने महल को कई वर्षों बाद देख कर मुस्कुरा उठती है तिलिस्मगढ़ लौटी हुई
राजकुमारी| बागियों में रंग बदलते हुए फूल और शहतूत के चलते हुए वृक्ष
देते हैं प्रसन्नता को बड़ा| आम के पेड़ पर हरे रसीले से आम कर
देते हैं हर किसी को मंत्र मुग्ध| द्वार में
प्रवेश कर दिखते हैं अपनी सुता से मिलने के लिए प्रतीक्षा कर रहे राजा और रानी|
वैशालीमा: देखिए ना महराज, विश्वास नहीं होता है कि
विजयवती, हमारी बेटी हमारे समक्ष खड़ी है| कितनी बड़ी
हो गई है! इसकी यह मुस्कान, यह बचपन आज भी हृदय को स्पर्ष कर जाता है| कहीं हमारी
इस लाली को हमारी ही नज़र ना लग जाए| कितनी चंचल
और कोमल है यह| भगवान करे कि यह ऐसी ही खिलखिलाती रहे| हमारी नन्ही
सी राजदुलारी, देखो ना कैसे पलकते-झपकते १६ वर्ष की हो गई है|
वंगमसिंह: कमल का सौम्य पुष्प है यह हमारे लिए| इतना लंबा
वियोग सहा है इससे| अब इसको जाने नहीं देंगे खुद से
दूर| हमारी आँखों, हमारे लोचनों का सितारा है यह| इतने वर्षों
तक अभ्यास किया है इसने| कितनी प्रवीण हो गई है हमारी यह
लाडली सी विजयवती| इस रियासत की वीर रक्षक है यह
योद्धा| ऐसी संतान किस्मत से ही प्राप्त होती है|
विजयवती: नेत्र अश्रुओं से भर गए हैं हमारे आपको इतनी
बरसातों बाद पा कर| भावुक हो गए हैं हम| कब से मन
में यह कामना थी हमारे, भर लेने की अपने माता-पिता को अपने अंक में| आज पूर्ण
हुई| इतने समय तक दूर नहीं रह सकते आप से| साँच है यह
कि आप जैसे माता-पिता ईश्वर की हर संतान को प्राप्त होने चाहिएं| ओ, कितना
सुंदर है सब कुछ|
वैशालीमा: गर्व है आप पर| आपने हमारे
तिलिस्मगढ़ का नाम कितना रौशन किया है| शूरवीर हैं
आप और आपका कौशल अति प्रशंसनिय है| काबिलिय
तारीफ़ हैं युक्तियाँ आपकी| मस्तक अभिमान से ऊंचा कर दिया
हमारा|
वंगमसिंह: और नहीं तो क्या, आपकी अस्त्र-शस्त्र की
विद्या लाजवाब है| यश हैं आप इस रियासत की| कितनी निपुण
भानमती और शागिर्द हैं आप| आशा करते है कि इस ज्ञप्ति का
प्रयोग कल्याण के लिए करेंगी आप|
उत्तराधिकारी जो हैं आप हमारी रियासत की|
वैशालीमा: अनुभव कैसा रहा आपका विश्व की ज्ञप्ति प्राप्त
करने का? कैसा रहा सब कुछ?
विजयवती: कहें भी तो क्या? लफ्ज़ ही छोटे पड़ चुके हैं
बयान देने के लिए| कितना कुछ हुआ उस शिवीर में कि शब्दों
में बताना कठिन हो रहा है| सीखों से भरा था यह सफ़र हमारा| काफी कुछ
एकदम नव था हमारे लिए| तलवारबाज़ी भी कहाँ आती थी हमें| इंद्रजाल भी
थोड़ा सा ही तो आता था| गुरुमाँ ने ही तो हमें उभारा है,
हमें विक्सित किया है| विश्व का सबसे अनमोल रत्न, ज्ञान
दिया है हमें| तिलिस्मगढ़ से कितना भिन्न था स्वर्णिमलोक का विपिन| शरद के माह
में तो कड़ाके की ठण्ड होती थी और सारे पर्वत ढक जाते थे हिम से| मतंग आ जाते
थे शिवीर के बहुत समीप, एकदम गहरा था वह वन और भूजात भी तो पहुँच जाते थे क्षितिज
तक| विजय और वरद, हमारे बहुत अच्छे दोस्त बन गए| सफ़र की
मंज़िल बहुत अनमोल थी लेकिन|
{मायानगरी
में}
किशन(एक
पुरुष): राजकुमार शिक्षा पूर्ण कर लौटा है
निकेत में| स्वागत तो इसका महान ही होना चाहिए| कितना रूप
से झीला है| ओ, बहुत ही प्रबल है|
अंशुमन(दूसरा
पुरुष): कितना कमाल का तीरंदाज़ है हमारा यह
राजकुमार| अपने नयन मूंद कर भी चला सकता है तीर निशाने पर| घोटक पर
विराजते ही करने लगता है यह पवन से वार्तालाप| कितना तीव्र
है इसका वेग|
सादवी: आखिर वापिस आ ही गया मेरा मित्र| कितनी तेज़
गति पाई है इसने| अश्व के साथ कितना गहरा और अटूट
सम्बन्ध होगा इसका| होनहार योद्धा लग रहा है एकदम
अपनी सूरत से| कैसा तेज सा है यह छाया|
विजय: मायानगरी, हमारा घर, हमारा साम्राज्य आज
हमारे समक्ष है| मोह है हमें इस रियासत से| कितनी
समृद्धि हो चुकी है इस रियासत की| प्रजा भी
कितनी प्रसन्न लग रही है| इस गुलाबी आकाश ने तो जीत ही
लिया हमें| किशन और अंशुमन काका, आपका यह प्रेम ना हमारे लिए बहुत ही
अनमोल है|
मृगेंद्र: कौन करेगा भरोसा अपनी आँखों पर, इस
राजकुमार को देख कर| ९ वर्ष गुज़र गए इसे गए हुए| अब जा कर इस
धरा पर इसने पद रखें हैं अपने| कितना माहिर
लग रहा है|
हाकिम: वाह! संसार के विजेता पर इस गगन ने ही विजय
प्राप्त कर ली| चमत्कार हो गया यार| हमारा यह
परम मीत भी कितना निपुण एवं कुशल हो कर आया है| हमें भी
थोड़ा तो प्रबुद्ध कर दे ना| हम भी जान जाएँगे तेरे इस धनुष
को|
विजय: तुम लोग भी ना| वैसे हमारे
लिए ना माईने बहुत रखता है तुम्हारा साथ| मृगेंद्र,
सादवी, हाकिम, हमारी दोस्ती को ना कोई भी प्रलय नहीं तोड़ सकता| अब चलो
धनुर्विद्या का प्रारंभ हो ही जाए|
मृगेंद्र: समय का पहियाँ भी घूम गया है बहुत| कोई सोच भी
नहीं पाएगा यह कि तू ९ वर्षों से राजभवन नहीं गया| तुझे वहां
चले ही जाना चाहिए शायद|
सादवी: चल, साथ चलते हैं हम तेरे, अपने इस सहचर के
सहित| महाराज और महारानी बहुत ही ज़्यादा उत्सुक हैं तेरे से
मिलने के लिए| ओ चल ना, शर्मा क्यों रहा है?
विजय: आवश्य ही, चलो ना| माता-पिता
से मिलने के लिए यह अंतःकरण बहुत मचल रहा है| सालों से
छवि नहीं देखी, अब प्रतीक्षा नहीं कर सकते|
कथावाचक: बुलबुले में विराज कर, भर लेता है मायानगरी का
राजकुमार अपने सहचरों सहित महल तक की लम्बी उड़ान| महल भी तो
था माणिक से बना हुआ और लटकती थी चांदी की झालरें| स्तंभों पर थी प्रभावशाली नकाशी| चाह्चाहते
थे अलि बगीचे में| था मध्य में एक भव्य सा फवारा
जिसमें था मोती रूपी नीर| विशाल और चकित कर देने वाला महल
था| वह, क्या बात थी| भीतर ही
राजा और रानी गए दिख|
वानीषा: हमारे कलेजे का भाग, हमारा लाल लौट आया| शेर जैसा लग
रहा है एकदम| अंखियों का निखार भी तो देखिए कितना उभर कर आ रहा है| यह वही विजय
है जो ९ बरसों पूर्व चला गया था करने अभ्यास| ओ, अति
खूबसूरत|
विपलवदेव: हमारे राज्य की शान, प्रजा का प्रताप खड़ा है
सामने हमारे| तीरंदाजी में श्रेष्ठ और घुड़सवारी में लाजवाब राजकुमार है
यह| प्रशंसा के काबिल है| इसने तो
प्रभावित ही कर दिया प्रत्येक व्यक्ति के मन को| राज्य बहुत
ही कुशल और गुणवान शासक के हस्तों में है|
विजय: यह आपका प्रेम और हमारे प्रति त्याग ही है
जिसने हमें यहाँ अक पहुँचाया है| समय था एक
जब काँप उठते थे हाथ हमारे उठाते ही धनुष को| आपका सहारा
ही था जिसने दिलासा दिया और उत्साह को बढ़ाया| वर्षों से
आपको नहीं देखा, इतने लम्बे काल तक दूर रहना पड़ गया| नेत्र तरस
गए थे आपकी झलक के लिए| मिलन हो ही गया है तो ऐसा है
लगता हमें कि देखते ही रहें अब हम आपके प्यार भरे चहरों को|
वानीषा: हमारा बेटा, कितना प्यारा है| किसी चाँद
या तारे से अल्प नहीं है यह हमारे लिए| हमारे
साम्राज्य का चिराग है यह| इसकी यह अद्भुत युद्धकला
प्रतिष्ठा है हमारी और हमें ज्ञात है यह कि यह परोपकार के लिए और राज्य के सुखद
भविष्य के लिए करेगा प्रयोग अपने इस कौशल का|
विपलवदेव: आवश्य करेगा ना यह राज्य का उत्कर्ष एवं जनता
का भला| उम्मीद करते हैं इससे कि प्रभावित कर देगा यह समस्त संसार
को अपने कौशल से| सुकर्म करने वाला बनेगा यह और
पाएगा राज्य के उल्लास में ही अपनी खुशी| है यह
आन-बान और शान हमारी, हमारे कुल की| अपने अनुभव
के बारे में कुछ चाहेंगे कहना आप?
विजय: क्यों नहीं| सफ़र हमारा,
यात्रा हमारी थी रोमांच से भरी तथा थी अति रोचक| स्वर्णिमलोक
का था मायावी वन| करना प्रशिक्षण वहां पर था बहुत
ही कठिन| प्राकृतिक छटा उस घने जंगल की तो थी ही इतनी प्रचंड कि
आखिर क्या बताएं| बहुत ही गहरा था और था भयानक
प्राणियों का निवास| रहते थे भेड़िए वहां जिनका सामना
करना था हथेली पर सारसों जमाने जैसा| साँपों का
था वहां पर खौफ| एकदम ज़हरीले भुजंग थे वह| रात का तम
छाते ही निकल आते थे चंगादढ़ खूंखार| गृष्म के
महीनों में तो थी एकदम तपती गर्मी| लेकिन बदल
जाता था नक्षा शरद के महीनों में| एक तरफ उभर
रहा था हमारी धनुर्विद्या का कौशल तो दूसरी तरफ ही बन गई थी विजयवती तलवारबाज़ी में
महान| वरद था सच्चा दोस्त हमारा| कहते हैं कि
जो भी उस घने और कठिनाईयों भरे कानन में करेगा अभ्यास, नहीं होगा उसके कौशल का कोई
तोड़|
कथावाचक: दिन गुज़रे, जैसे-जैसे, आनंदित होने लग गए दोनों
राज्य लेकिन कहते है ना कि आनंद उत्सव की रागिनी होती है क्षणभंगुर| बज उठता है
कभी भी एक स्वर बेमेल सा| विश्व ब्राह्मण पर निकले थे
महाराज और महारानी दोनों राज्यों के सौंप कर रियासतों का उत्तरदायित्व अपनी
स्नातनों को| तभी अचानक घट गई दुर्घटना, और डूब गया जहाज खौफनाक समुद्री
तूफान में| प्राण चले गए समस्त यात्रियों के जो थे उस पर सवार| बरस उठा शोक
का बादल तिलिस्मगढ़ और मायानगरी पर| पड़ गया
विजयवती को सिंघासन पर विराजना और पहन लेना महारानी का ताज| जबकि विजय
की थी कुछ अलग ही परिस्थिती| बिगड़ गई थी
मायानगरी के प्रांतों की स्थिति| प्रांत थे
तिलिस्मगढ़ से बहुत ही दूर और जाना पड़ गया विजय को करने विनियमन समस्याओं का|
विजय: नहीं जानते हम, कि आखिर क्या अभिलाषा है ऊपर
वाले की| स्वर्णिमलोक से लौटे हुए समय भी नहीं हुआ ज़रा सा कि, चले
गए माता-पिता छोड़ कर हम दोनों को सदा के लिए| अब नियती हम
दोनों को भी कर देना चाहती है विभाजित एक-दूसरे से भेज कर हमें मायानगरी के
प्रांतों में|
विजयवती: सत्य कहें तो, मुश्किल तो हैं यह दिन हमारे
लिए, लेकिन हारना नहीं सीखा है परिस्थितियों से| हम दोनों
योद्धा हैं, और नहीं आता हमें टेक लेना अपने घुटने कठिनायों के समक्ष| डट कर सामना
करेंगे| सरल तो नहीं होगा हमारे लिए तुम से दूर रहना मगर निवेदन
करते हैं तुम से कि सर्वप्रथम प्रधानता, मायानगरी की प्रजा को ही देना| अपना
कर्तव्य निभाना मत भूल जाना|
विजय: हमारी प्रजा हमारे लिए है अति बहुमूल्य और
नहीं आने दे सकते हम कोई आंच अपनी प्रिय प्रजा पर| उतरदायित्व
तो अब हम आवश्य ही निभाएँगे| वचन देते
हैं तुम्हे विजाया कि कार्य पूर्ण कर ही वापिस आएँगे हम| हो सकता है
कि हमारी अगली मुलाक़ात को होने में शायद अब लग जाएँ साल, लेकिन यह दोस्त गले मिल
कर ही रहेंगे| धीरज रखना|
विजयवती: कुछ विषयों को ले कर, नहीं कर सकते हैं हम तुम
पर भरोसा विजय| अब जीतना ही तो फिदरत है तुम्हारी, किसी को क्या ज्ञात कि
तुम निर्धारित अवधि से पूर्व ही आ जाओ| समय को ही
कर दो पराजित| देख लो, अगर किया ना तुमने ऐसा तो हम होंगे तुम्हे मायानगरी पुनः
भेज देने वाले| सबसे पहले प्रजा और उसके पश्चात कोई और| याद रखना इस
बात को|
विजय: यह बात स्मरण रहेगी हमें| निराश नहीं
करेंगे तुमको विजाया| प्रजा को संकट से निकाल कर ही अब
शांत बैठेंगे हम| उत्तल-पुत्थल तो हो ही चुकी है
प्रांतों में लेकिन सब ठीक हो ही जाएगा| आ गया है
समय अब ले लेने का विदाई तुमसे|
विजयवती: प्रतीक्षा में तो अब रहेंगे ही हम तुम्हारी| मगर उससे
पूर्व तो हमारा राज्य सदा ही रहेगा| अब हम
बनेंगे अपने राज्य का उत्थान और कल्याण करने वाली महारानी| नहीं होगा
किसी को कोई दुःख हमारे रहते हुए, और यदि ऐसा हो भी गया तो अधिक समय तक वह कष्ट रह
न पाएगा| प्रतिज्ञा लेते हैं हम कि चाहे अब जो भी हो जाए, पर्यावरण
का रक्षण करके ही रहेंगे हम| अब धारणीय
विकास ही है उद्येश्य हमारा| रक्षा
करेंगे प्रजा की तथा रखेंगे सबको सुखी|
कथावाचक: सुन कर दंग रह गई प्रजा जब स्वार्थ सहित बोली
महारानी विजयवती कि उस को है प्रेम धन, सत्ता, सम्पति और सोना-चांदी से| कथन था उसका
कि वह जा सकती है किसी भी हद तक धन, सत्ता, सम्पति एवं सोना-चांदी के लिए| कुछ पलों के
लिए तो छा जाता है सन्नाटा और सोचने लगती है प्रजा कि भूल हो गई है उनसे जो एक
स्वार्थी नारी को विजयनन्दिनी की छवि समझ कर बिठा दिया सिंघासन पर| किन्तु,
हमारी सर्वप्रिय महारानी विजयवती ऐसी कहाँ| उल्लासित हो
जाते हैं दरबार में साक्षात सभी सुनकर कि उनकी महारानी की धन-सम्पति, तिलिस्मगढ़ की
प्रजा के अतिरिक्त नहीं है कोई और|
{वृद्धाल्य
में}
कथावाचक: एक बहुत ही ज़्यादा विशाल वृद्धाल्य, जहां पर थी
पारंपरिक बैठक| कई वृद्ध बैठते थे दिन के दौरान और गुज़ार देते थे समय अपना
कर देने में विनोद चर्चा| संध्या होते ही, हो जाता था
वृद्धाल्य वीरान जब चले जाते थे सब घर अपने| बिताते थे
संध्या को समय परिवारजनों के संग| बैठक में था
एक चरखा बड़ा सा और रखा हुआ था यंत्र मक्खन निकालने वाला| पसंद करते
थे सभी वृद्ध करना एक-दूसरे से वार्तालाप| मौजूद था
सिलाई-कढ़ाई का सामान| थी यह एक और खूबी तिलिस्मगढ़ की| रखी थी एक
आटा चक्की और विशाल से आकार का मूसल| कूटे जाते
थे मसाले हाथ से| था यह व्यापार का एक और माध्यम| तभी किया
प्रवेश उस शांत से वृद्धाल्य में तिलिस्मगढ़ की महारानी ने|
सभी
वृद्ध: अरे! बेटी तुम आ ही गई| कितनी
प्रसन्नता हो रही है मन को देखते ही तुम्हे| सत्य है कि जो
भी देख ले छवि तुम्हारी, हो जाएगा तनाव से मुक्त| आओ, बैठो ना
हमारे साथ| बोलो, आगमन कैसे हुआ तुम्हारा?
विजयवती: अब आप ही तो हमारा परिवार हैं एक लौता| देख कर आपको
सुखी और भरा हुआ उल्लास से, लगता है कि पूर्ण हो गई हर एक कामना जीवन की| दरबार में
भी नहीं था बैठना तथा कर लिए थे पूर्ण आज के उत्तर्दायत्व सभी| इसलिए सोचा
कि क्यों ना, देख ही लिया जाए कि हैं क्या हाल-चाल हमारी प्रजा के| अगर सुख की
है कमी, तो बन जाएंगे हम कारण आपके हर्ष का| यदि है
सुखों की बौछार तो छोटा सा हिस्सा है हमारा|
सभी
वृद्ध: ईश्वर भला करे तुम्हारा पुत्री| कितनी
प्यारी और म्रिद्धुभाषी हो तुम| प्रतीत होता
है कि शकर घोल दी हो किसी ने स्वर में तुम्हारे| काश नज़र ना
लग जाए तुम्हे किसी की| वरदान है यह ईश्वर का जो
उन्होंने हमें तुम्हारे जैसी शासिका दी|
{कुछ
समय बाद}
विजयवती: बहुत ही अच्छा लगा मिल कर आप सब से| सांच में,
एक बेटी होने का अनुभव पुनः प्राप्त कर लिया हमने| आप ही तो
हैं स्तम्भ हमारी रियासत के| अनुपस्थिती
में आपकी, सोचा भी नहीं जा सकता कि क्या होगा तिलिस्मगढ़ का| सब आप ही के
सहारे तो है टिका हुआ यहाँ पर| ख्याल
रखिएगा अपना और सर्वदा रहिएगा मुस्कुराते हुए|
कथावाचक: एक ओर, विजयवती के दिल में था रियासत के
बुजुर्गों के प्रति प्यार तो दूसरी ओर ही था उसे बच्चों से लगाव| देख उनकी
हरकतें चुलबुली सी, हँसी नटखट सी, लड़कपन सुहाना सा तथा लफ्ज़ मनमोहक से, स्मरण आ
जाता था उसको बचपन स्वयं का| कभी बन जाती
थी वह आपा तो कभी घुल कर बालकों से, स्वयं बन जाती थी बच्ची| जब नहीं
बैठती थी दरबार में, जब नहीं करती थी विनियमन राजसी मामलों का, जब जुटी नहीं होती
थी राजसी सम्बन्ध बनाने में, तो पाई जाती थी बालकों के सहित खेलते हुए और करते हुए
थोड़ी सी शिक्षा प्रदान| कर रखी थी उसने पदोन्नती
तिलिस्मगढ़ की पाठशालाओं की, जहां दी जाती थी शिक्षा एक बहतर जीवन व्यतीत करेने की,
करने का भला समस्त नक्षत्र का| ज्ञान माना
जाता था बहुमूल्य तथा अध्यापक थे अर्हता प्राप्त| परिवर्तित
हो गए बंजर मैदान, चाह्चाहते और खिलखिलाते हुए उपवनों में| समीर बहता
था ताज़ा सा, शीतल सा|
{६
वर्ष पश्चात, तिलिस्मगढ़ के महल में, शहतूत के वृक्षों के समीप}
निलीमा: अरे! विजयवती, तू अभी तक यहीं है, ना जाने कब
से बैठी हुई है यहाँ इन शहतूत के भूजातों की छाया में| कब जा कर
बंद करेगी तू, देखना दिन के समय यह स्वप्न? प्रतीक्षा किसकी की जा रही है तेरे
द्वारा?
विजयवती: अब क्या ही बताएं तुझे? भला दरबारियों की भी
प्रतीक्षा की जाती है क्या? हर किसी को ज्ञात है कि इस महल में हर चतुर्दशी को,
होता है शाही सभा का ऐलान, फिर भी|
निलीमा: कैसी बातें कर रही है? व्यर्थ में ही समय
बेकार जाने दे रही है अपना| कोई नहीं है आने वाला इस शाही
सभा में| क्योंकि हैं सभी बिलकुल व्यस्त| चल दिखा ही
देते हैं दृश्य तुझे|
विजयवती: पर बता भी दे कि जाना कहाँ हैं हमें| किस कार्य
में दरबारी हैं व्यस्त जो सभा में ही नहीं हो सकते उपस्थित|
निलीमा: सारी महाभारत अब यहीं सुनेगी क्या? चलने में
कोई परेशानी हो रही ही क्या तुझे?
विजयवती: भूल मत निलीमा, केवल तेरी दोस्त ही नहीं हैं,
अपितु वह हैं जो अभी विराजी हुई है सिंघासन पर| ऐसा व्यवहार भाता नहीं है|
निलीमा: ओ, बोध ही नहीं था इस बात का| तिलिस्मगढ़ की
महारानी के लिए सबसे अनमोल कौन? उसकी प्रजा| मत भूलिए महारानी साहिबा कि मैं भी
हूँ भाग आपकी प्रजा की| बात मान लें|
कथावाचक: पकड़ कर ले जाती है निलीमा अपनी सखी को राज्य के
सभामण्डपम में| सजा हुआ था वह पुष्पों के सहित| बिछी हुई
थीं टिमटिमाती मोतियाँ, जो थीं तारों के समान| लटका हुआ था
छत से एक झूमर ओजस्वी सा| बना हुआ था वह झूमर पूर्ण रूप से
हाथी के दांतों का| दीवारों से टंग रही थीं लड़ियाँ
गुलमोहर और पोस्ते की| घुली हुई थी महक ही महक हर जगह| मेजों पर
सजे हुए गुलदस्ते थे बहुत ही कमाल| सजावट का
नहीं था कोई जवाब| सब था कितना आलीशान|
विजयवती: (चकित हो कर) आखिर यह सब है क्या? किसने किया
यह सब और किस कारण से? अचानक से यह ख्याल आया किसके मन में? निलीमा, सच-सच बता
हमें कि, क्यों खर्च कर दी इतनी धन-राशी वह भी बिना बताए हमें| (अचानक से
गायब हो जाती है निलीमा) अरे! निलीमा आकिर है कहाँ पर तू? यह तिमिर, इसमें तो हाथ
को ही हाथ सूझ नहीं रहा|
कथावाचक:
(तभी अचानक से एक ध्वनि है आती)
पीछे का
स्वर:जिए काश सालों-सालों यह महारानी हमारी| दिया है सुख
जिसने, ना जाए उसकी ज़िन्दगी बिरानी| सज जाए जीवन
उसका प्रसन्नता की तुशीला से जिसने सुखद कर दिया विश्व समस्त इन ६ वर्षों में| जन्मदिन की
हार्दिक शुभकामनाएं महारानी विजयवती| हो तुम एक
सुता सच्ची, सखी सच्ची, बहन सच्ची|
विजयवती:
(भावुक हो कर, नेत्रों से लगते हैं टपकने आंसू) वाह! धन्यवाद आप सबका जो आपने
हमारे इस खास दिन को और भी ख़ास है कर दिया| ला ही दी
मुस्कान दिल पर हमारे| भूल ही चुके थे हम पूर्ण रूप से
अपने इस जन्मदिवस को| स्पर्श ही कर लिया अंतःकरण को| इतना प्यार,
हमारे लिए, सोचा भी नहीं था| शुक्रियादा
नहीं कर पा रहे| आखिर आप सबने किया इतना कुछ हमारे लिए|
गुंजन: आखिर छू ही लेना था इस कार्यक्रम ने दिल को
तेरे, अब शुक्रिया क्यों कह रही है? पात्र है तू इस सबकी| तेरे कर्मों का फल है यह| कितनी काबिल
है| कई जीवन सवारे गए हैं तेरे द्वारा| बस इतने में
ही कैसे हो जाएगा| प्यार जताने में छोड़ ही कैसे
सकते हैं कमी|
रागिनी: अरे, हमारी बेटी तो हो ही गई भावुक| देखो, कैसे
उल्लास के अश्रु रहे हैं टपक| नाम हो गईं
हैं आँखें| छोड़ो, असली बात करते हैं| मनपसंद
वयंजन है तंदूरी मच्छी और मसालेदार बिरयानी इसका| फिर पेश है,
मयूर: जन्मदिन की मुबाराक्बात| तेरे लिए
तोफा है एक पास मेरे| जल्दी, आ जाओ सामने|
कथावाचक:
तभी आ जाते हैं समक्ष मायानगरी के दोस्त पुराने| हाकिम,
सादवी और मृगेंद्र होते हैं उनके नाम| देते हैं
शुभकामनाएँ अपनी और करते हैं प्रस्तुत एक संदेशा ख़ास|
विजयवती: तुम सबसे मिलना इतने समय बाद, इसे बड़ी खुशी और
हो ही क्या सकती है| यह वयंजन, इसके पीछे छुपा हुआ
प्रयास, तथा ममता बना देता है इसे और भी स्वादिष्ट|
{उल्लास
के कुछ घंटों बाद हो जस्ता है प्रीतीभोज संपन्न|}
विजयवती:
(संदेशा पढ़ते हुए), आज का दिन बीत ही कैसे गया, पता ही नहीं चला| अति सुहाना
लम्हा था यह| स्नेह ही स्नेह पहुंचा इन चक्षुओं के समक्ष| इस संदेश
में लिखा क्या है? ना कोई नाम, ना कोई पता, बस हम आ रहें हैं|किसने होगा
भेजा इसे? कहीं यह वही तो नहीं? (तिलिस्मी पतंग की डोर पकड़ कर भरती है उड़ान|)
कथावाचक:
उड़ते हुए मध्य में जंगलों के, दिखता है
दृश्य एक विचित्र सा| रथ पर सवार एक योद्धा, सूत के
चीर से ढका हुआ था चहरा| अचानक बिगड़ा संतुलन और गिरने को
हो गया वह खाई में| देख उसे मारी छलांग विजयवती ने
पतंग की डोर से अपनी| थाम लिया रथ को और बचाली जान
उसकी|
विजयवती: यह योद्धा, आखिर हैं कौन आप? आखिर किससे मिलने
की है शीघ्रता इतनी जो अपने साथ इन मासूम से तुरंगों के प्राण कर देना चाहते हैं
न्योछावर? रथ चलाते समय, होता है अनिवार्य रखना ध्यान| पकड़ा नहीं
होता, तो फिर ना जाने दुर्घटना घट जाती कैसी?
योद्धा: कुमारी, शुक्रगुज़ार हैं आपके जो बचाली आपने
हमारी तथा इन पशुओं की ज़िंदगी| सुना ही था
कि सज्जन रहते हैं इस रियासत में लेकिन अब दृश्य है लोचनों के समक्ष|
विजयवती: यह भी सुना ही होगा कि नहीं छोड़ता है तिलिस्मगढ़
कोई कमी करने में अपने आगंतुकों की मह्मान्द्वाज़ी| बोलिए, क्या
सेवा करें आपकी? परिचय तो दें अब स्वयं का|
योद्धा: (उड़ पड़ता है सूत का चीर समीर के तीव्र रुख
से) हम हैं मायानगरी के राजकुमार| जाने जाते
हैं विजय के नाम से| मिलने आए थे तिलिस्मगढ़ की
महारानी से| बहुत ही हैं गहरे व अटूट मित्रता के सम्बन्ध हमारे मध्य
में| कृपया सहायता कर दें हमारी करने में उनसे मुलाक़ात|
विजयवती:
(रह जाते हैं नयन फटे के फटे) विजय, तुम यहाँ? कैसा लगेगा तुम्हे जब बताएँगे
तुम्हे हम स्वयं की पहचान? हैं तिलिस्मगढ़ की महरानी और है विजयवती नाम हमारा|
विजय: क्या, शुक्रिया खुदा का, जो करा दी प्रथम
मुलाक़ात दोस्त से अपनी| कितनी काबिल लग रही हो| चल क्या रहा
है तिलिस्मगढ़ में? कुशलतापूर्वक है ना सब| मयूर, गुंजन
और निलीमा आखिर हैं कैसे?
विजयवती: ओ! सब पहले से ही था एकदम कुशल-मंगल| बढ़ जाएगी अब
रौनक आगमन से तुम्हारे| मुस्कुराते हुए हैं सभी सहचर
हमारे| मयूर, निलीमा और गुंजन, नहीं आया है इन तीनों में १९-२० का
परिवर्तन| बात छू गई हृदय को जब देख लिया हाकिम, सादवी और मृगेंद्र
को|
विजय: भूल ही नहीं सकते हैं हम तुम्हे तथा हर उस
दिन को जो है सम्बंधित तुमसे| बाईस्वे
जन्मदिन की बधाई| मुबारक हो विजाया|
विजयवती: स्मरण था तुम्हे| शुक्रिया| मायानगरी का
कैसा है वातावरण? हो तो चुकी है ना समाप्ति शोरगुल की?
विजय: क्या बताएं तुम्हे? समस्त वस्तुएं हैं सही
एकदम सारंगी की भांति| मन रहा है आनंद का महोत्सव हर
स्थान पर| इतने वर्षों बाद, हैं आएं| राज्य नहीं दिखाओगी
क्या अब हमें?
विजयवती: कर रहे हो अब प्रतीक्षा किसकी? पधारो, दिखाते
हैं| करा ही देते हैं मिलन तुम्हारा प्रजा से अपनी|
कथावाचक: दो बिछड़े हुए दोस्तों का जब होता है पुनर्मिलन,
तब जगमगाने लगती है वसुंधरा| देख दोनों
को अपने समक्ष, की जाती है बरखा सुमनों की तिलिस्मगढ़ की प्रजा के द्वारा| सबसे उत्सुक
तो होते है बच्चे जो लग जाते हैं घूमने इर्द-गिर्द दोनों के| कुछ तो
होतें है ऐसे जो नहीं होते हैं परिचित विजय से| थोड़े ही समय
में, हो जाता है मशहूर राजकुमार मायानगरी का बच्चों के समक्ष| एक दिन, आ
जाता है दृष्टिकोण में एक जाना माना त्योहार| मनाया जाता
है जो हर २५ वर्ष में एक बार| लाग्वा होता
है नाम| होता है दिवस वह निशानी प्रेम की|
तिमा
की प्रजा: (सामुदायक बगीचे में इकत्रित
हो कर) आ ही गया वह दिन जिसकी थी प्रतीक्षा २५ वर्षों से| है यह दिन
पिताका प्रेम का| है यह जाना जाता लाग्वा के नाम
से| अवसर है कितना शुभ|
मृगेंद्र: यूँ तो है यह लगता, कि लाग्वा है त्योहार
अति विशेष| मगर होता क्या है इस त्योहार में?
निलीमा: हो तो रही है जिज्ञासा मन में हम सभी के| आखिर होना
भी तो है स्वाभाविक चूंकि है ही नहीं कोई २५ वर्ष का हम सब में से| बताइए ना,
कृपा कर दीजिए ना उत्तर हमारे इस उत्साह को| करेंगे हम
भी अनुष्ठान इस दिवस का|
गुंजन: हम सब में ही है अभिलाषा समझ लेने की हमारे
तिमा की रंगीन सी विरासत को| सहायता
करें, प्राप्त करने में इस लक्ष को| (दिखाती है
समस्त युवक पीढ़ी कोतूहल विषय में लाग्वा के)
अंशुमन: हो गई है प्रसन्नता, देख कर यह कामना पहचान
लेने की अपने इस वतन को| देनी ही होगी अब ज्ञप्ति तुम सब
को| लाग्वा है एक समारोह अनमोल सा| हुआ है आगमन
आज इसका कई वर्षों पश्चात| ज्ञात है हम सभी को कि, होता है
अंतःकरण में हर मनुष्य के, एक महासागर लगाव का|
पशु-पक्षियों के प्रति लगाव, वतन के प्रति लगाव, लगाव कुदरत के प्रति, लगाव खानदान
के प्रति, धर्म के प्रति तथा स्वयं के प्रियजनों के प्रति|
चंदरिया: किया जाता है अनुष्ठान इस ही लगाव का| मनाया जाता
है उत्सव यह समस्त धर्मों के द्वारा| प्रेम है
जताया जाता| किया जाता है श्रृंगार पशु-पक्षियों का और जाता है परोसा
आहार विशेष सा इन प्राणियों को| सजाए जातें
है धार्मिक स्थान सभी| रौशन कर दिए जाते हैं स्थान
समस्त| भूजात होते हैं रक्षक पर्यावरण के| भर लिया
जाता है इन्हें अंक में अपने तथा कर ली जाती है जानकारी संग्रह विषय में इनके|
किशन: होती ही है प्रीति हर किसी को प्रियजनों से
अपने| सबसे दिलचस्प भाग तो होता है करना नृत्य अपने परमप्रिय के
संग| वयंजन भी होते हैं सुर्ख वर्ण के| होता है यह
वर्ण चिह्न मोहब्बत का| रोचकता तो होती है भरी भीतर तक
इसके|
विजय: वाह! राजकुमार होते हुए भी थे हम अनजान विषय
में इसके| गर्व है हमें वंश पर अपने| जिसकी विरासत
है इतनी विविध| प्रकृति माँ के लिए भी होगा यह दिन अति सानंद| प्रण भी तो
है लिया जाता करने की वृक्षों की रक्षा|
विजयवती: संस्कृति है कितनी लाजवाब हमारे प्रिय तिमा की| अवसर है पास
हम सभी के जताने के लिए कृतज्ञता और बताने के लिए कि अनमोल है सभी कुछ हमारे लिए| इन्द्रासागर
रहा है निकेतन बाल लीला का हम सभी की| मधुअचरिणी
सरिता ने है बुझाई प्यास हर जीव-जंतु की| वन्यभुवन कानन
ने दिया है आश्रय नाना प्रकार की जिंदगियों को| रीछ,
बारासिंह, बिज्जू, सियार, शेर, बाघ, कपि हैं अनमोल पशु हमारे| पंछियों की
भी थोड़ी है ना कमी| गोडावण, टिटहरी, लाल माथे वाला
गिद्ध, लीख, बगुले, चरस तथा बटेर हैं रहते| हर किसी के
लिए है खाद्य उपलब्ध| कौन होगा वह जिसको नहीं होगा चाव
अपनी इस प्राकृतिक सम्पति से| हमें तो है
गहरा सा लगाव|
कथावाचक: हो गया समय दोपहर का| जुट गए
सज्जन करने में तैयारियां इस महोत्सव की| सज गए सभी
मंदिर, मस्ज़िद तथा गुरुद्वारे गजब सजावटों से| कहीं बिछ
गईं लड़ियाँ तो कहीं चमकने लग गए चाँद| परोसी गई
ताज़ी सी घास भेड़-बकरियों को| डाला गया
शाही सा चारा खगों को| संग्रह कर ली गई जानकारी विषय
में पादपों के| सब मिल लिए गले एक-दूसरे के| लगीं
डुपकियां इन्द्रसागर में| गया पूजा प्यास बुझाने वाली मधु
अम्बा को| रसोईघरों से हो कर तैयार निकले वयंजन लाल रंग के| जल गए
चटकीले से दीये समस्त दीवारों पर| हो गया
रंगीन प्रत्येक भवन रंगोली के रंगों से| रौशन ही
रौशन था सब कुछ| आया वह समय, थी जिसकी प्रतीक्षा| हो गई
संध्या, अस्त होने को हो गया भानु| हो गया अब
नृत्य आरम्भ|
हाकिम: है यह दिन खुशहाली से भरा| प्यार ही
प्यार है जाता पाया| कृतज्ञता है जताई जाती| आ ही गया है
शुभ काल, कर लेने का वार्तालाप अवधी से अपनी आत्मा की| हो जाए अब
फिर नृत्य अति सौम्य| (हस्त पकड़ अपनी नृत्य जोड़ीदार
गुंजन का, आरम्भ है कर देता वह मधुर नृत्य|)
निलीमा: नृत्य, है ही यह तो अद्भुत| ध्वनियों से
भरा हुआ दिलचस्पी सा, जब पड़ते हैं कदम धरा पर, तब सुनाई देती है ध्वनि मस्त सी| लहरा कर
हस्तों को अपने, ले सकते हैं आनंद समस्त प्राकृतिक वस्तुओं का| नृत्य ही तो
है पसंदीदा सा भाग हमारा| (स्वयं के जोडीदार मृगेंद्र
सहित, लहरातीं हैं बाहें एवं होती है थपथपाहट पायों की|)
मयूर: होता ही है कला में इस अनियंत्रित सा बल| नहीं है कोई
सकता कर अवप्राक्कलन इसका| है यह शस्त्रों का शस्त्र तथा
होते हैं कई उपयोग इसके| कर सकता है यह सहायता जीत लेने
में कठोर से कठोर जंग को| स्वस्थ्य के लिए है अति लाभजनक
यह| (अपनी जोड़ीदार सादवी के साथ मिल कर घूमता है गोल और करता
है प्रस्तुत सौम्यता से भरपूर नृत्य|)
विजयवती: इस विश्व में इंद्रजाल के, नृत्य है अति
तिलिस्मी| कभी होता है ताल से चाल मिलाना, तो कभी होता है छलांग
लगाना| कभी मुद्राओं से गाथा करना प्रस्तुत तो कभी भावों को करना
होता है व्यक्त| (सबसे मनोहर है होती जोड़ी इन राज्यों के शासकों की| एक की
सुन्दरता है लुभा लेती हृदयों को तो दूसरे की नजाकत का नहीं होता है कोई तोड़| होते हैं
यां दोनों महारथी नृत्य के|)
कथावाचक: मना यह वेशकीमती सा समारोह, लग जाती है प्रजा पुनः
जीने ज़िंदगी भरी हुई सुकून से| रथ के ही
चलते-चलते, पधारता है सावन| कर रहा होता है प्रतीक्षा हर कोई
खुबसूरत नागाहारियों की| मगर खिसक जाती है भू पैरों के
तले से| हो जाता है चकित समस्त जीव| नहीं टपकती
है नभ से एक भी बूंद जल की| लगते हैं मरने वनस्पति प्यास से| घटता ही है
चला जाता जल मधुअचरिणी का| लगता है बरसने कहर आकाल का| नहीं होता
है कहीं सलिल ज़रा सा|
{मायानगरी
के दरबार में}
दीपांजली
(एक स्त्री): हे राजकुमार! कैसा पहाड़ है टूट
पड़ा राज्य पर हमारे| नहीं है नाम-ओ-निशान वर्षा का| होने लग गईं
हैं खराब फसलें हम किसानों की| हो चुकी है
प्यास बुझाने वाली स्वयं प्यासी| टूट पड़ा है
आकाल| अब किया जाए तो क्या?
संग्राम
(तीसरा पुरूष): है उचित कथन दीपांजली का| है यह विषय
कर देने वाला चिंतित| आकाल के कारण ही हुआ आगमन अनाहार
का| है ही नहीं अब कोई खाद्य उपलब्ध नन्हे बच्चों के लिए हमारे| जादू भी
नहीं कर सकता है मदद अधिक समय के लिए| नहीं थे
तैयार इस सब के लिए हम|
विजय: समझ सकते हैं हम इस व्यथा को आपकी| नहीं था
समर्थ रियासतों में हमारी निपट लेने का इस विपत्ति से| पर रहें आप
सब निश्चित क्योकि मिल कर हम और आप निकाल लेंगे निवारण इस कठिनाई का| समय की है
आवश्यकता हमें| तब तक के लिए करना होगा प्रबंध किसी प्रकार का| अब आएँगे ही राजसी संबंध काम हमारे|
विजयवती: है ही कुछ स्थिति ऐसी हमारे तिलिस्मगढ़ की| नहीं है
निकल पा रहा नीर नलों से| जल ही है सूख गया उन पुराने से
कुओं का| प्रबंध नहीं है किया गया किसी जल को संग्रह करने वाले
उपकरण का| है स्थिति अति गंभीर तिमा के लिए| सिद्ध करना
होगा अब कार्य शीघ्र ही शीघ्र|
विजय: सही ही तो है तुमने कहा| हैं हम
विचार कर रहे लेने की सहायता हमारे मित्र साम्राज्यों से| हैं
स्वर्णिमलोक, चंदंवादी, शहद्यकुंज, हीराप्रस्त उदहारण मीतों के हमारे| रहा है मज़बूत
व्यापार हम राज्यों के मध्य| थामते ही आ
रहे हैं हस्त एक-दूसरे के समय में विषाद के| उम्मीद तो
है साथ की इन सब के|
विजयवती: नहीं है पड़ा समान्य प्रभाव इस संकट का प्रत्येक
क्षेत्रों में| कहीं-कहीं है नहीं प्रभाव घिनौना उतना| द्वन्द करने
के लिए इस अनाहार से, जोड़ सकते हैं बाजारों को अपने राज्य के| ले सकते हैं
मदद खाद्य परिवहन करने वाले बंजारों की| काटने के
लिए पर इस आफत को सदा के लिए, करनी होगी व्यवस्था विशेष सी|
विजय: ले कर अनुमति, अन्य रियासतों की, सोच रहे हैं
कि कर निर्माण कनाल का, कर सकते संयोजित सलिल मधुअचरिणी का| है क्या
ख्याल तुम्हारा?
विजयवती: सही ही हो कहते तुम| अभी भी हैं
हमारे पास कुछ बंजर स्थान| बचा कर रखे थे ऎसी ही
परिस्थितियों के लिए| होंगे अब बनाने जल इकत्रित करने
वाले ढाँचे| पड़ेगी आवश्यकता सभी उत्तीर्ण वास्तुविदों के कौशल की| वही अब कर
सकते मरम्मत पुराने कुओं की एवं बना सकते हैं मंसूबे सभी ढांचों के| मौलिक
मानचित्र बन सकते हैं केवल उनके ही द्वारा|
विजय: विचार उतम है तुम्हारे| होना होगा
अब भविष्य के लिए तैयार| होगा अब करना सर्वश्रेष्ठ उपयोग
राज्यों की सीमा पर स्थित अचलों का| तराश कर उन
पर्वतों को बना सकते हैं हम खत्री| गुरूत्वाकर्षण
के कारण बहने वाले जल को ले जा सकते हैं खेतों तक| बनाने होंगे
अब खुल हमें इस के लिए| होगा यह सब मुमकिन तभी जब पूर्ण
रूप से झलकेगी एकता प्रजाजनों के मध्य| यदि हो जाए
मिलन सभी के कौशल का, तो सागर छोड़ेगा रास्ता और झुकाएँगे शीश पर्वत|
विजयवती: सदा के लिए, खड़े हैं हम प्रजा के संग| पुर्री तरह
से बताएँगे हाथ इस लक्ष्य को करने में प्राप्त| सहयोग देने
में न छोड़ेंगे कोई कसर हम| गठन में इस, समान्य रूप से भाग
लेंगे अब शासक|
कथावाचक: जुड़ गए बाज़ार बंजारों के द्वारा| निकाल लिए
गए कनाल अन्य रियासतों से| तराश लिए गए खत्री और बना लिए गए
खुल| मंसूबे बने बावली व बेरियों के| भूमीगत
टंकियों का किया निर्माण| शासकों ने बेझिजक हो कर निभाई
भूमिका मजदूरों की| चलाए हल महारानी ने तो उठाए भार
बजरी व चूने के बोरों के राजकुमार ने| हो गए समस्त
जन एक से एक मिल कर ग्यारह| था संगठन यह अति शक्तिशाली| नहीं था कोई
उत्तर उसका| कट गए कई तरू इस कार्यक्रम के दौरान| आई शुभ घड़ी
और टिप-टिप कर बरसा अंबु| पंख फिलाते हैं मयूर|
विजय: प्रसन्न हैं हम देख कर इस संगठन को| सर्वोत्तम
बात तो यह है कि भुला कर पुराने फासलों को, सबने एक हो कर दिया मुह तोड़ जवाब इस संकट
को| तिमा की अनेकता में एकता ही है शक्ति| कायम कर दी
मिसाल| खुश हो कर बरखा के देवता ने, आज कर दी वर्षा| मगर कार्य
नहीं हुआ है पूरा| अगर नहीं सिद्ध किया गया यह
महत्वपूर्ण काम तो संकट ही संकट हैं लिखे भाग्य में|
प्रजा: (आश्चर्य चकित हो कर) मगर ऐसा क्या महत्वपूर्ण
कार्य है शेष, जो उसके न होने पर छा जाएगा प्रलय हमारे राज्यों में?
विजयवती: कठिन नहीं है, उत्तर इस प्रश्न का| ज्ञात है
सभी को कि असंभव है जीवन वृक्षों की अनुपस्थिति में| आकाल जैसी
विपत्तियों का तो निकाल लिया निवारण मगर परास्त कर दिया वन्यभुवन के कई विटपों को| इस ही कानन
ने तो दिया है आश्रय वन्य जीवों को तथा कई वन्य कबीलों को| मधुअचरिणी
का जल है पावन क्योंकि वृक्षों की जड़ों ने ही है स्थिर कर रखा माट्टी को| अनिवार्य है
उन स्थानों में बीज बोना जहां-जहां से काटे गए हैं तरू| आदेश है
हमारा, पुनः उगाने का पेड़ अरण्य में| (प्रयोग कर
इंद्रजाल का, बीज है बो देती प्रजा|)
कथावाचक: पसार लिए पैर एकता ने एवं सजय हो गईं रियासतें
सहने में प्राकृतिक विपत्तियों का प्रकोप| अब दिया गया
ध्यान करने में सशत बहादुर व कौशल से भरपूर्ण सेना बालों को| दिया गया
कठोर परिक्षण उन सभी स्त्रियों और पुरुषों को जो होना चाहते थे शामिल फ़ौज में| साहस व विवेक के थे सागर इन सब के शक्तिशाली उरों में| सिखाया गया
बालकों को आत्म-रक्षण| बन गए अब मयूर, मृगेंद्र, हाकिम,
गुंजन, सादवी व निलीमा जाबाज़ एवं जानबाज़ योद्धा| अग्रसर होता
ही चला गया वेग समृद्धी व श्री का| मगर कहते ही
हैं ना कि तूफ़ान से पूर्व छाया हुआ होता है सन्नाटा| पलट गए
पन्ने इतिहास के| बात से इस थी अनजान विधर्बिकाकी
निकल भागी चंडालिनी की अगली पीढ़ी बरसाने के लिए कहर भविष्य में और लेने के लिए
प्रतिशोध| चाहा वंशज ने चंडालिनी की, गाढ़ना झंडा अपना दुर्ग पर तिमा
के|
{तिलिस्मगढ़
के दरबार में}
रागिनी: (रुआंसते हुए) हे प्रभु, आखिर है यह कैसी
परीक्षा हमारी? क्यों है डली कुदृष्टि चंद्रमुखी की हमारे तिमा पर? आनंदोत्सव की
रागिनी में यह शोक पूर्ण स्वर क्यों? नहीं हैं अब चाहते कि मच जाए तबाही पुनः
हमारे राज्यों में|
विजयवती: धैर्य रखिए रागिनी चाची, नहीं होगा कुछ हमारे
राज्यों को| आप सबकी ढाल बन कर अब खड़े रहेंगे हम| नहीं आने
देंगे कोई आंच आप सब पर एवं अपने चिरागों पर| हर एक खंजर
को हमें चीरते हुए ही पहुंचना होगा आप तक| अपने इस ही
बहुमूल्य परिवार के लिए कुर्बान कर देंगे जीवन अपना| आखिर, यही
तो होता है गुण योद्धा का|
अमजद: मत करो प्रयोग ऐसे अशुभ वचनों का बेटी| नहीं जी
पाएंगे तुम्हारे बिना| खो नहीं सकते तुमको| कदा भी न कहना
आगे से तुम यह सब| भुला नहीं पाया है कोई भी
महारिनी नन्दिनी के साथ घटी उस भैयानक दुर्घटना को| इतने ही
लम्बे वियोग के पश्चात मिली है कोई उन साक्षात देवी के जैसी| नहीं बिछड़
सकते अब इस अनमोल धरोहर से|
विजयवती: अमजद काका, क्यों इतना सोचते हैं आप? नहीं होगा
कुछ भी हमें| हमारी तिलिस्मी फ़ौज है अति प्रवीण व निपुण| विवेक व
वीरता ही है दिखाई देती हमारे सैनिकों में जो सदा बाँध कर शीश पर कफ़न, करते हैं
सुरक्षा हमारी| हम सभी के सहचर भी अब हो चुके हैं माहिर युद्धकला में| बच्चा-बच्चा
है वाकिफ़ आत्म-रक्षण से| अब तो एक और एक ग्याराह हैं हम| भय ही क्यों
है?
चंदरिया: आशा तो यह ही हैं करते कि, जो कह रही हो तुम
हो जाए सच| काश रहे प्रभु का कवच सदा तुम्हारे इर्द-गिर्द| काश, ना आए कोई
हथियार तुम्हारे पास|
महाल्सहा: योद्धा तो रह मैं भी चुकी हूँ तिलिस्मी सेना
में| समझ आती है भली भांति लालसा एक शूरवीर की| मत करना
आशंका युद्ध कला पर स्वयं की| नहीं है कोई
रोक रहा तुम्हे जंग में लड़ने से| सब ही हैं
जानते कि तुम्हारे होते हुए नहीं है सकती
पहुँच कोई तलवार हमारे विरुद्ध| गर्व तो
करते हैं सभी महारानी पर अपनी| मातृभूमी के
रक्षण का उतरदायित्व तो निभाओगी ही तुम| बात केवल है
यही कि करते हैं प्रेम सब तुम से| गँवा देना
नहीं चाहते| बस थोड़ा सा ही ना रखना ख्याल अपना| दिखा देना
नज़ारे जाबाज़ी के अपने उस दुष्ट को|
विजयवती: आप सब का ही साथ व प्यार, मित्रों की मित्रता और
यह अनमोल से नाते ही हैं शक्ति हमारी| यदि हो भी
गया कुछ हमें, तो भी है भान इस बात का कि आएँगे आप सब काम इस रियासत के तथा नहीं
पाएगी बिगाड़ कुछ चंद्रमुखी आप का| रहे
निश्चिंत, अभी भी हैं परमेश्वर सहित हमारे|
विजय: हो जाए फिर ऐलान-ए-जंग| पाएगी अब
चंद्रमुखी बदले में चोट करारी सी| जंग की
व्यवस्थाएं अब कर दो आरम्भ| युद्ध का बिगुल है किसी भी क्षण
अब बजने को|
कथावाचक: घोंष्णा होते ही युद्ध की, हो जाती है रचना
युद्ध व्यूह की| प्रथम पंक्ति में होते हैं खड़े शासक| होता है
योद्धा प्रत्येक तैनात हय, मतंग एवं ऊंट के सहित| टंगे होते
हैं तर्कश, मयान में होती है लटक रही तलवार, तथा होता है सवार जुनून मस्तक पर| बजता है शंक
और दौड़ पड़ते हैं प्रतिद्वंदी करने अंत एक-दूसरे का| कहीं भूमि
पर है दिखाई देती महारानी विजयवती युद्ध कर रही कट्टर तलवारबाज़ चंद्रमुखी से| नहीं होता
है समीप उसके कोई तिलिस्मी सेना का सैनिक| द्वन्द देख
कर तो है लगता, कि होगा नामुमकिन निश्चित करना विजयेता को|
चंद्रमुखी: अरे! विजयवती, देख आए हैं लौट दिन पुराने| शताब्दियों
पूर्व, इस ही भूमी पर छिड़ी थी जंग मेरी भव्य और पूजनीय पुर्ख चंडालिनी तथा उस फूल
की कली विजयनन्दिनी के मध्य| कुचल डाला
था उस बेचारी को तो चींटी की तरह| पर तू वैसी
कहाँ? तू तो है तेज़ धार वाली करवाल पैनी सी|
विजयवती: अर्थ तो हुआ यही कि, नहीं है भाग्य तेरा उतना
सुखद| नहीं है खड़ी समक्ष तेरे पुष्प की नाज़ुक सी कली| मसल तो
पाएगी नहीं इस पैनी सी तलवार को| जो उठाएगा
लोचन बुरे हमारे सर्वप्रिय तिमा पर, नहीं रहेगा वह काबिल डालने के लिए दृष्टी किसी
अन्य पर|
चंद्रमुखी: बातें बंद और शास्त्रबाज़ी शुरू| तेरी जैसी
ही हूँ मैं निपुण तलवारबाज़| बजा डालूंगी तेरे बारह, कर नहीं
पाएगी अब तू कुछ मेरा| है क्या सोचा तूने कि नहीं है
आता चंडाल वंश को तलवारें तोड़ना? (होता है कंधे पर प्रहार विजयवती के एक खंजर से,
तथा छूट जाती है हाथ से उसके तलवार|)
{है प्रहार करता बाण चंद्रमुखी का| डालता है
चीर अमाशय को तिलिस्मगढ़ की रानी के| मगर नहीं
होते हैं सीखे टेकने घुटने उसने| निकाल बाहर
विष से भरपूर्ण बाण को, करती है प्रयास खड़े हो जाने का पैरों पर स्वयं के| मगर उसके ही
पहले हो जाता है प्रहार दूसरे बाण का| दर्दों को
भीतर सहते हुए, निकाल लेती है उस बाण को पेट से अपने|}
विजयवती: (क्रोद्ध में उबलते हुए) नहीं किया है अच्छा
तूने, वार कर छल से| नहीं थी ना हिम्मत शेष तेरे में,
जो निशस्त्र कर ही चीर पाई हमें| कलंक है तू
नाम पर योद्धा के| (है कर देती उत्पन्न एक विस्पोट
भैयानक सा प्रयोग कर अपने प्रचंड इंद्रजाल का| जाते हैं
मारे कई रिपू सैनिक|)
चंद्रमुखी: बड़ी भानमती है तू बन रही| अब हूँ
बताती तुझे| चुकाएगी कीमत अब तू प्राणों से अपने| हलाह्लास्त्र
पुकारती हूँ तुम्हे| कर लो धारण अपना रूप सबसे खूंखार
और हर लो प्राण इसके| (है बेध देता अब हलाहलास्त्र उस
दर्द में कराहती हुई महारानी के अमाशय को| होने को
होती है अब वह निश्चेष्ट मगर दे कर सहारा अपना, निकाल देती है चंद्रमुखी उस प्रचंड
बाण को|) भूल ही गई थी मैं कि नहीं देनी चाहिए मृत्यु तुझे इतनी
सरल सी| तडपा-तडपा कर है अंत करना चाहिए तेरा| (चलाती है चंद्रमुखी
खंजर गर्दन पर उसकी और ४ बार देती है घोंप छुरे पेट में उसके| निकल ही रहा
होता है केवल खून|)
कथावाचक: जैसे ही गिर जाती है धरा पर विजयवती, चंद्रमुखी
खरोंच देती है बेहोश रानी के हस्तों को खंजर से| पहुंचा कर
इतना दर्द व कष्ट, मार देती है धक्का उसको मधुअचारिणी में| वहीँ है
टकरा जाता माथा उसका, नदी में पड़े हुए पत्थर से| लगती है अब
वह डूबने गहराइयों में नदी की| नहीं होती
है अब कोई उम्मीद उसके बचने की|
विजय: (व्यथा में चिल्लाते हुए) विजाया, यह हो
क्या गया तुम्हे| चली कहाँ गई तुम? नहीं विजाया,
ऐसे कैसे जा सकती हो छोड़ कर तुम हमें| लौट आओ| हाय!
गुंजन: धैर्य रख विजय, कुछ नहीं होगा विजयवती को| वह आवश्य
आएगी लौट कर| निकाल हम खोजेंगे उसको सरिता से| आवश्य ही,
ईश्वर पकड़ कर रखेंगे हाथ उसका| (सहित हाकिम
के, कूद जाती है गुंजन मधुअचरिणी में तलाशने दोस्त को अपनी|)
हाकिम: अरे विजय! कर दे क्षमा अपने मित्रों को| नहीं है मिल
पाया कोई नदी में| छान मारा है चप्पा-चप्पा मगर है
नहीं सुराख कोई उसका| है बाहर वह दृष्टी के| दुर्बल मत
होना, भरोसा रखना अब कायनात पर| होगा नहीं
कुछ अहित में|
कथावाचक: करती है धारण मधुअचारिणी साक्षात रूप अपना| होती है
उत्पन्न माँ संबंधी एक आकृती सुशील सी| महरबानी व
दया होती है झलक रही उसमें| दैवीय सा होता है स्वभाव उसका| बड़ी सी
आँखें होती हैं स्नेह-कातर| चहरा होता है चमक रहा ममता से|
मधुअचारिणी: ओ तितलियों, मेरी प्रिय तितलियों, दिया है आश्रय
तुम्हे| नहीं है माँगा कुछ बदले में इसके लेकिन आज हूँ मैं मांगती| कर लो रक्षा
आज उस रक्षक की जिसने हैं कस डाले प्राण स्वयं के शिकंजे में, करते हुए रक्षण
मासूमों का| कर्राहट उस रक्षक कर रही है प्रदान उदासी सब को| है वह वीर
डूबने को मेरी गहराइयों में| कृपा कर जाओ
और रोक लो उसे विसर्जित हो जाने से| डोर उसके
जीवन की अब है हाथों में तुम्हारे| नहीं थमनी
चाहिएं धुड़कने उसकी|
तितलियाँ: जो आज्ञा, मधु अम्बा| नहीं
तोड़ेंगे भरोसा आपका| भगवान को आज होगा ही करना जीवित उसको| देना ही
होगा अब कर्मों का फल उसको|
कथावाचक: है उभर आता कालीन तितलियों का उस डूबती हुई
महारानी के नीचे| बचा लेतीं हैं तितलियाँ उसे
डूबने से ला कर उसको सतह पर जल की| बहते-बहते
छ्होद ई देता कालीन तितलियों का विजयवती को तट पर सरिता के| जाती है
पहुँच वह काफी दूर राज्यों से अपने| है देख लेता
एक साँप पक्षी उस दृश्य को व जाता है उड़ शीघ्रता में|
{स्वर्णिमलोक,
छत की मरम्मत कर रहे वरद के समक्ष है आ जाता साँप-पक्षी|}
वरद: अरे बाबुल! क्या विशेष खबर हो तुम लाए?
देर लगादी तुमने देने में दर्शन अपने| अब बरसातों
बाद ही है तुम्हे आई याद अपने इस सहचर की| करूं कैसे
सेवा अब तुम्हारी? (शांत स्वरुप वरद हो जाता है व्याकुल अचानक से, विराज तुरंग पर
अपने, दौड़ पड़ता है तट पर सलीला के तीव्र गति से)
{मधुअचारिणी
के तीर पर}
वरद: यह है कौन और हो कैसे गया घायल इतना?
सहायता तो अब होगी ही करनी| विजयवती, यह इधर कैसे? दशा तो है
बहुत ही खराब इसकी| इतने गहरे घाव, जल्द ही अगर नहीं
किया कुछ तो देगी यह त्याग जीवन अपना| सर से इसके बहता जा रहा है सह्लाब लहू का| त्वच्चा गई
है फट और ज़ख्म भी हैं जानलेवा| जो भी हो
जाए, इसके घाव जल्द से जल्द होंगे भरने| (कर प्रयोग
जादू का अपने, प्रयास करता है वरद भरने का अपनी दोस्त की चोटों को|) यह क्या,
कोई लाभ नहीं हुआ इंद्रजाल का| डरो मत वती,
मेरे रहते हुए नहीं होगा कुछ भी तम्हे| माँ का
मानता हूँ मैं वेद-वाक्य और है भरोसा कि रोक लेंगी वह तुम्हारी साँसों को तन्ने से|
कथावाचक: लिटा कर अपनी अंतिम साँसें ले रही महारानी को
अश्व पर, है ले जाता अपने घर तक|
ब्रह्मचरिणी: बेटा, यह विजयवती तेरे पास कैसे? इसकी यह दशा हो
किस वजह से गई? विलंभ मत कर और ला बुला कर वैद्य को| अगर हो गई
देर, तो खो देंगे हम इसे| बचाना ही होगा इस को हर
परिस्थिती में|
वैद्य: (चोटों को जांचते हुए) हलाहलास्त्र ने है
बेध दिया पेट को इसके| अर्थ केवल एक है कि गया है फ़ैल
चुका हलाहल विष इसके शरीर के भीतर तक| रक्त की हो
चुकी है कमी व थमने को हैं हो रही धड़कने दिल की| प्रचंड हैं
यह घाव| जो तीन बाण हैं लगे इसको, भरा हुआ है विष उनमें और हर सकते
हैं प्राण यह किसी के भी|
ब्रह्मचरिणी: मत कहिए ऐसा, आवश्य होगा शेष कोई मार्ग करने का
रक्षण इसका| नहीं है हो सकता ऐसा मरण इसका| निवेदन हूँ
करती आपसे, केवल २२ साल की आयु में मत त्यागने दीजिए इसे जीवन स्वयं का|
वैद्य: चिंता मत करिए, रहेगा पूर्ण प्रयत्न मेरा
उपचार कर लेने में इस मासूम का| यह तो ज्ञात
नहीं कि भरेंगे कब तक घाव इसके परन्तु औषधी लगाई आवश्य जा सकती है| (लगा कर
औषधी शीश के घावों पर, जाती है बंध पट्टियां) आगे तो प्रवेश नहीं करेगा विष देह
में इसके लेकिन अत्यधिक हानि तो है पहुंचा दी| बात कहूँ,
तहे उर से हूँ मैं चाहती बचा लेना जीवन इसका| देखते ही है
लग रहा कुछ अपनापन सा|
ब्रह्मचरिणी: सबसे बड़ा गुण तो यही है इसका| बहुत ही
समृद्ध राज्य की है महारानी यह| लगाव है
बहुत गहरा इसके और इसकी प्रजा के मध्य| स्नेह है
जताती यह न केवल मनुष्य से अपितु प्रत्येक जीव-जंतु से| जितनी काबिल
है, उतनी ही दयावान है| परिवार नहीं है इसका, परन्तु है
आता इसको बून लेना नव रिश्तों को|
वैद्य: विचार उचित हैं| इसके ज़ख्मों
की मरम-पट्टी तो है हो चुकी लेकिन नहीं है हुई यह उपचारित पूर्ण रूप से| हो सकता था
प्रयास जितना, उतना किया, अभी है शेष अंदरूनी क्षति को करना ठीक| श्र्वास
चलते देने होंगे इसके|
कथावाचक: लगा ही रही होती है वैद्य जड़ी बूटियाँ अंगों
पर, जब अचानक से लगती है रोगी चिल्लाने दर्द में| होने लगती
है कठिनाई करने में उपचार उसका| पिला देती
है वैद्य एक विशेष द्रव जिसके कारण हैं सो जाती पाँचों इन्द्रियाँ विजयवती की|
वैद्य: आशा हूँ मैं करती कि यह भाव अश्वगंधा की
भर देगी जीवन तुम्हारे भीतर| दुआ है मेरी
कि प्राण लौट आएं तुम्हारे| बहुत ही हो प्यारी तुम| तुम्हारी
झलक ने ही है दर्शा दिया मधुर स्वभाव तुम्हारा| काश, कर
पाती बात तुम से, मगर विश्राम करो अभी|
ब्रह्मचरिणी: शुक्रिया, उस सबका जो आपने किया इसके लिए| ख़ास है यह
उनके लिए जो चाहते हैं इसे, जो जानते है इसे, उन सब के लिए जिन से यह है मिली| दिल से हीरा
है| ९ वर्ष हैं बिताए सहित इसके और है ज्ञात कि प्रवीण योद्धा
होने के सहित है यह राज्य की सेविका महान|
वैद्य: हूँ मैं समझ सकती भावों को| यदि बेहोशी
चली गई इसकी प्रातः काल तक तो होगी यह बाहर हर खतरे से वर्ना नहीं रहेगी बीच हमारे| (वती का
माथा थपथपाते हुए) कामना तो है सभी की कि ले सको तुम भी आनंद हम सब की तरह कल के
दिनकर का| काश, निकाल लाए कोई चमत्कार बाहर तुमको मौत के अँधेरे से|
कथावाचक: जब है होती विजयवती अकेली कक्ष में, तभी है टूट
पड़ती ज्वाला नभ से| इतनी होती है चमक उस ज्वाला की,
कि हो जाता है कठिन झांकना उसके भीतर तक| प्रतीत होती
है वह चमत्कारपूर्ण ज्वाला वैकुंठ से आई| होता है
सेहतबख्श प्रभाव उसका| ढक लेती है वह जीवन और मृत्यु के
मध्य लटक रही विजयवती को| आते ही समीप उस ज्वाला के, धड़कने
आने लगतीं है लौटने, साँसें लगती है चलने साधारण वेग से, पुनः लगता है रघुओं में
बहने खोया हुआ रक्त व निकल भागता है हलाहल देह से उसके| हिलने को
होतीं हैं स्थिर बाहें व झिलमिलाने लगते हैं चक्षु| तभी है आता
एक स्वरुप उस सोती हुई नारी के स्वप्न में|
विजयवती: (चकित हो कर) महारानी विजयनन्दिनी, यह? हम है
कहाँ पर? कोई है क्या? सहायता करो हमारी| पहुँच कैसे
गए इस अनोखी सी घाटी में? यह दृश्य, नहीं; संभव हो कैसे सकता है यह? उत्तर दीजिए
इन प्रश्नों का हमारे| हाय!
विचित्र
ध्वनि: हे सुता, नहीं है कोई घबराने की
आवश्यकता तुम्हे| क्यों हो डर रही तुम, देख कर
आकृति स्वयं की? तुम ही तो हो समक्ष खुद के|
विजयवती: आह, हैं कौन आप? कैसे है ज्ञात आपको यह सब? हम
महारानी विजयनन्दिनी हो ही नहीं हैं सकते| व्याकुलता
को ना बढ़ाएँ|
ध्वनि: चरित्र में झांको अपने| मिल जाएगा
उत्तर तुम को अपने प्रत्येक प्रश्न का| लोचन बंद
करो, शांत हो जाओ और फिर हो जाएगा आभास सत्य का| विजयवती असल
में है विजयनन्दिनी ही| उस सर्वप्रिय महारानी ने है लिया
पुनर्जन्म रूप में तुम्हारे|
विजयवती: क्या, यह तो सत्य ही प्रतीत हो रहा है| मगर इसका
अर्थ यह है कि हमारा सहचर विजय;
ध्वनि: विजयनन्दन है कुमारी| प्रयोजन है
तुम दोनों की जिंदगियों का एक ही| कर लेना
पूर्ण उस जन्मों की प्रेम गाथा को जो रह गई थी अधूरी| है इंतकाम
लेना तुम्हे ना केवल अपने राज्य पर हुए अत्याचारों का, अपितु उस भैयानक मौत का जो
विजयनन्दिनी को दी गई| कर दो विनाश उसका जिसने कर दिया
तुम्हे अधमरा| जाओ उठाओ शस्त्र, करो वार व बचा लो कई निर्दोष जिंदगियां| असल विश्व
में जाने का आ गया है काल|
कथावाचक: तभी, है बुन जाता एक मंत्र जादूई विजयवती पर| पुनः है वह
आती नज़र लेटी हुई बिस्तर पर| हो जाती है
जाग्रत उस अनोखे स्वप्न से और है पाती पूर्ण रूप से विविध संसार को समक्ष अपने|
विजयवती: वरद, क्या यह तुम ही हो? इस प्रकार हम
स्वर्णिमलोक में कैसे? उस चंद्रमुखी ने तो फेंक दिया था हमें सरिता में| असंभव होता
है प्रतीत यह|
वरद: मत दो दबाव स्वयं को| मानसिक
घावों का भरना है शेष अभी| तुम को नहीं दे सकता और कष्ट| मधुअचारिणी
के कूल पर, दर्द में कराहती हुई मिली थी तुम| ला कर उपचार
है किया तुम्हारे ताकि ना जाओ तुम छोड़ कर हमें|
विजयवती: शुक्रिया, यदि नहीं होता सहारा तुम्हारा तथा
अपनी प्रजा का तो आज अंतिम श्र्वास भी चले जाते| समय नहीं है
करने का अभी यह बातें, पड़ेगा करना प्रस्थान हमें तिमा के लिए| होगा रोकना
चंद्रमुखी को|
वरद: क्या यही है अंतिम निर्णय तुम्हारा? कृपया
करो विचार पुनः शीतल मन से| हिचकिचाहट में लिया गया निर्णय
नहीं होगा लाभजनक तुम्हारे लिए| कहीं हो तो
नहीं रही हो भयभीत? मत छुपाना सत्य मुझ से| यदि है माना
दोस्त तुमने सच्चे मन से तो आज कर दो व्यक्त हर एक परेशानी अपनी| वह दोस्त ही
क्या जो हो जाए असक्षम भरने में घावों को अपने ही मीत के|
विजयवती: विकल्प नहीं है शेष वरद| यदि कर दिया
इन्कार हमने भयभीत होने से तो होगा यह असत्य| यदि मान
लिया हमने तो नहीं देगा शोभा हमें| लानत होगी
हमारे योद्धा होने पर|
वरद: बस इतनी सी व्यथा? इसको तो हल कर सकता हूँ
चुटकियों में| भय तो है होता हर किसी को| ऐसा योद्धा
है ही कौन जिसको भय का सामना न करना पड़ा हो? योद्धा भी तो साधारण मनुष्य ही होते
हैं मगर है एक बात जो बनाती है उनको आम से ख़ास| वह है केवल साहस
उनका| साहस का अर्थ भय की अनुपस्थिती नहीं है होता मगर भय
पर प्राप्त कर लेना विजय होता है उचित अर्थ साहस का| नाम में ही
है विजय तुम्हारे, तो व्यथित क्यों हो रही हो? कर दो परास्त इस भय को अपने| जाओ, अगर
जाना चाहती हो तो चली जाओ| नहीं रोकूंगा तुम्हे| पर ध्यान
रखना इतना कि अंत में पछताओ ना| गेंद दरबार
में है तुम्हारे, श्रेष्ठ जो लगे वह करो|
विजयवती: आभारी हैं तुम्हारे जो तुमने खोल दिए नेत्र
हमारे व दिखा दी सच्चाई| हमारा निर्णय यह है कि अब नहीं
लेंगे काम भय से| उसके स्थान पर साहस के बल-बूते पर होगा हमारा अंतिम निर्णय| रहेंगे हम
स्वर्णिमलोक में ही तथा करेंगे निर्माण शूरवीर सेना का जो करेगी सर्वनाश उस क्रूर
महारानी चंद्रमुखी का| महारानी विधर्बिका के नक्षे कदम
पर होगा चलना|
वरद: सर्वश्रेष्ठ वती| जुट जाओ इस
ही क्षण से अमल करने में लक्ष्य पर अपने| जितना साथ
चाहिए होगा, मिलेगा उतना| परन्तु स्वयं को तो तुम्हे ही
होगा सिखाना| नहीं मिल पाएगी सहायता उस कार्य में तुम्हे|
विजयवती: मत करो कोई चिंता इसकी| पहले से ही
हो कर चुके बहुत मदद| अब आत्मनिर्भर हो कर करना होगा
कुछ हमें भी स्वयं के लिए|
{स्वर्णिमलोक
के दरबार में, महारानी चंद्रपाखी के सिंघासन के समक्ष}
विजयवती: सुप्रभात महारानी चंद्रपाखी| कोई विशेष
कारण है ले आया हमें आपके दरबार तक| आज हैं हम
घिरे हुए कठिनाइयों से, कृपा कर सहायता करें हमारी करने में पराजित इन कठिनाइयों
को|
चंद्रपाखी: आइए पधारिए, महारानी विजयवती| आपने तो है
मन प्रसन्न कर दिया हर किसी का| आयु में हैं
हम से आधी, २२ वर्ष छोटी, तब भी हैं लगतीं बहुत बड़ी| कर दिखाए
हैं आपने वे सारे कारनामें, जिन्हें हम कर नहीं सके आज तक, जैसे: देना पछाड़ स्वयं
मृत्यु को| सहायता करना तो होगा सौह्भाग्य हमारा| आप तो बस
कमाल हैं| संकोच ना करें हमें बताने में कि कर क्या सकते हैं आपके
लिए|
विजयवती: बड़ी बहन जैसी हैं हमारे लिए| जब भी है
आती हम पर कोई विपदा, तब आता है स्मरण में नाम आपका सर्वप्रथम| दें अनुमति
हमें करने में आपके राज्य में निर्माण सेना का| निकाल शामिल
करने की तिलिस्मी सेना में सैनिक आपके स्वर्णिमलोक से|
चंद्रपाखी: आवश्य ही, अनुमति है आपको| जितने सैनिक
हैं आपको चाहिए, मिल जाएंगे उतने| जो सहायता
हम हैं कर सकते, वह हम करेंगे| आरम्भ से ही
तो आते आ रहे हैं काम हम दोनों के राज्य एक-दूसरे के| फिर कर कैसे
सकते हैं हम इनकार?
विजयवती: शुक्रिया दीदी| यदि साथ
नहीं होता आपका, तो राह नहीं होती समक्ष हमारे|
चंद्रपाखी: शुभकामनाएँ जीवन के लिए, हमारी छोटी बहन को| आशा करते
हैं कि, आप करा दें मुक्त प्रजा को अपनी कहर से उस चंद्रमुखी के|
{खूंखार
वन्यभुवन में, सैनिक होते हैं इकत्रित}
सभी
सैनिक: हे महारानी, है यह शुभ अवसर हमारे
लिए होने का शामिल जानबाज़ तिलिस्मी सेना में| मगर, समय है
बहुत कम तथा नहीं कर पाएंगे संग्रह हथियार उतने|
वरद: बोलो विजयवती, नहीं हैं अस्त्र-शस्त्र पास
इनके| सत्य में, क्या है इनको आवश्यकता उन सब की? क्या नहीं है
पर्याप्त जुनून इनका, साहस इनका, संकल्प
इनका, एकता इनकी जंग जीतने के लिए?
विजयवती: बात तो है उचित| हमारा मित्र
सत्य तो है कह रहा| क्या नहीं है किसी ने सुना
पराक्रमो विजयते? क्या है नहीं कोई जानता कि स्वधर्मे निधनम श्रेयहा? क्या है हर
कोई अनजान वीर भोग्य वसुंधरा से? क्या नहीं है अवगत कोई संगठन वा वीरता से? नहीं
है आता किसी को युद्धया कृत निश्चय? कैसे नहीं हो सकती है आप सबको ज्ञात प्रशता
रणवीर्ता? केवल शस्त्र बल पर ही हैं निर्भर आप सब? पराक्रम, स्वदेशानुराग, संगठन
पर से उठ चुका है क्या विश्वास? यह भावनाएं नहीं हैं सीनों में आपके?
सभी
सैनिक: हैं कृतज्ञ आपके महारानी, जो है करा
दिया आपने भान सत्य का| उचित ही है किसी ने कहा कि कायर
हुनू भांडा मरनो राम्रो| वीरता और विवेक ही है प्रेरणा
हमारी| हैं मानते अब हम सभी निश्चय कर अपनी जीत करों| सीखा है हम
सभी ने कर्तव्यम अन्वत्म| है किया हम सभी ने धारण असम
विक्राम| है हर कोई जानता बलीदानम वीर लक्षणम| शस्त्र से
शक्ति तो है ही, परन्तु बहादुरी व विवेक भी है सातवे आसमान पर| तिलिस्मी
एवं मायावी सेना है सर्वत्र इज्ज़त ओ इकबल| हैं हम
सर्वदा शक्तिशाली|
वरद: बुलंद है विश्वास हम सबका यश सिधी, देग-तेग
फ़तेह, कर्तव्य जीवन पर्यांत पर| कर्म ही है
धर्म व एक ही है शास्त्र हमारा; वयम रक्षाम| कर सकते हैं
हम नभः स्पृशम दीप्तम्| है आशा हमारी शम् नो वरुण| एक साथ हैं
हम ला सकते तूफ़ान और हैं पा सकते क्षत्रुजीत|
विजयवती: यह हुई ना बात| स्पष्ट रूप
से है अब दिखाई दे रही रूह एक वीर योद्धा की| अटूट है
शक्ति हमारी और हैं पक्के इरादे| भलाई करने
की है पनप रही मंशा हम सब में| अब तो जीत
कर ही रहेंगे हम, दंड मिलेगा आवश्य उस चंद्रमुखी को कुकर्मों का उसके| अभ्यास अब
होगा आज से ही आरम्भ| अति प्रशंसनीय| अस्त्र-शस्त्र
के साथ ही है हमारे पास बुलंदियां तथा कौशल| अब है आभास
हम सब को पराक्रम के उचित अर्थ का|
{तिमा
की सीमा पर}
दीपांजली: नहीं हैं देख सकते अपने इस बच्चे को हालत में
ऎसी| जीवन का तो अर्थ ही है भूल गया| है केवल
शारीरिक रूप में मौजूद समक्ष हम सब के| देखा जाए,
तो है यह हो गया लापता मानसिक रूप से| बस अब है यह
रहता भटकता हर दिशा में| खो दिया इसने दिन का चैन अपना
एवं निंद्रा रज्नियों की| कोई तो समझाओ इसे|
अमजद: यह लाल, विजय, सहम कितना चुका है| जो चहरा था
कभी खिलखिलाता हुआ सा, मुरझाया वह आज है| ना ही है यह
कुछ ठीक से खा पाता| कभी महल के जीनों पर, कभी इन्द्रसागर
के किनारे पर तो कभी बावलियों के भीतर है यह भटकता| खुशी का नाम
ओ निशान ही है मिट चुका जीवन से इसके| रूठा सा हो
गया है उर इसका|
चंदरिया: केवल इतना ही है जानता, कि होने पर सूर्योदय,
उठाना है धनुष अपना और है लड़ना जंग में| अपनी
सर्वप्रिय सखी वती से बिछड़ कर तो आज, छन्नी हो गईं हैं भावनाएं इसकी| हमें उम्मीद
दिखाने वाला, स्वयं का मनोबल है खो रहा| ऐसे तो यह
जाएगा बिखर| हमें करनी होगी अब मदद राज्यों के सहायक की| लड़ तो हमारे
लिए यह लेगा परन्तु स्वयं को शोक नहीं पहुंचा सकता यह| हे ईश्वर!
पुनः करा दीजिए मिलन उन दो अन्तःकरणों का जो नहीं हैं सह सकते वियोग इतना लंबा|
{स्वर्णिमलोक
में स्थित ब्रह्मचरिणी के सदन में}
ब्रह्मचरिणी: हुआ क्या है वती तुमको? विछ्लित लग क्यों रही हो
तुम इतनी? सैन्य-निर्माण में कुछ मंगल नहीं है क्या चल रहा?
विजयवती: सब कुशल है गुरू माँ| नहीं है कोई
शिकायत हमें अपनी सेना के सिपाहियों से| सभी हैं
प्रवीण व अति बलशाली| विचार से हमारे, हैं काफी बढ़ कर|
वरद: तो क्या, घर की आ रही है याद तुम्हे? मत
हो चिंतित क्योंकि बस थोड़े से ही समय में, तुम होगी प्रजा के समक्ष, अपने महल में| केवल थोड़ा
ही समय, और उसके रहते तो हो जाएंगी यह कठिनाइयाँ छू मंतर|
विजयवती: सिर्फ राज्य की आ नहीं रही है याद| मयूर,
गुंजन, निलीमा, मृगेंद्र, हाकिम और सादवी से हटा नहीं पा रहे हैं ध्यान अपना| इन से दूर
रहना तो होता जा रहा है दूभर| विजय, उसकी
छवि देखे बिना तो नहीं होता है हर्ष| जानते हैं
कि महत्वपूर्ण है हमारे लिए निभाना अपने उतर्दयित्वों को लेकिन; ओ!
ब्रह्मचरिणी: यूं ही रही हो परेशान तुम तो| जननी ही
समझो मुझे अपनी| आत्मजा की तरह ही है स्नेह किया तुमसे| तुम भी कर
सकती हो वही जो मेरा यह नादान बेटा है करता| शीष रखकर
गोद में अपनी अम्बा की है यह सो जाता| थोड़ी नादानी
दिखा अब तुम भी दो|
वरद: आह माँ, हैं धमाल आप तो| इस नालायक
से सुत को एक समझदार भगिनी कर दी प्रदान आपने|
कथावाचक: बीतने को होता है एक माह, विजयवती बन जाती है
अति प्रबल योद्धा| है सीख जाती वह चलाना एक बार में
तलवारें ४| कलाबाज़ी है वह सीख लेती कमाल की| इंद्रजाल
उसका, बन जाता है अब खूंखार इतना, कि है सकता उड़ा कई क्षत्रुओं को क्षण में एक| वरद की जल
का नियंत्रण करने वाली शक्ति शानदार सी, है बन जाती सहायता विशाल| वरद और
विजयवती के कौशल का हो जाता है जब मिलन दिलेर एवं जोशीली फ़ौज से, तब हो जाता है
निर्माण विश्व की सबसे प्रचंड कलाकृति का|
{इन्द्रासागर
के कूल पर, है पधारती एक कन्या}
विजय: अरे आमिलाह! हैं क्या कर सकते हम तुम्हारे
लिए? बोलो, कुछ अनुचित हुआ है क्या? कोई परेशानी जिसका निकाल हम सामाधान हैं सकते?
कैसी है विडम्बना?
आमिलाह: भाईजान, विडम्बना तो है अति भीमकाय| शायद
सामाधान उसका हमारा यह शूर भाईजान भी ना निकाल पाए| प्रश्न ही
है इतना कपटी मेरा| कहीं आप भी सोचते ना रह जाओ
उत्तर इसका| कोई क्या अपना मनोबल खो कर, शोक में समा कर फलोत्पदक्ता से
है सिद्ध कर सकता कार्य?
विजय: कठिन है क्या इसमें? यह तो किसी के लिए भी
होगा हथेली पर सरसों उगाने के जैसा| संयम की
अनुपस्थिति में नहीं है कोई परिस्थितियों को सुलझा सकता| यदि है
अभिलाषा निकलने की कठिनाइयों से तो इकाग्रता नहीं है वैकल्पिक|
आमिलाह: भाईजान, यह तो आवश्यक ज्ञप्ति प्रदान कर दी
आपने| उचित ही है कि रोने से नहीं होता है कुछ| यदि है तीर
उखाड़ना तो होगा करना प्रबल अपने आत्मबल को| परन्तु मैं
नहीं कर पाऊँगी अनुसरण कथन का आपके|
विजय: (रोने की आवस्था में पधारते हुए) ओ! क्या
कुछ कह अनुचित दिया हमने? सत्य में ही हो चुके हैं पराजित जीवन से| दूर ही तो
है होता जा रहा हम से सब कुछ| जिसे था
चाह, छिन तो वह भी हम से ही गई| नहीं है
ज्ञात इतना भी कि वह जीवित है अथवा मृत हो चुकी है| कायनात को
भी नहीं आई दया उसके साथ ऐसा हश्र करते हुए| क्यों पड़
गया इतना तड़पना उसे, केवल ढाल बन्ने के लिए रियासत की?
आमिलाह: (आंसू पौंछते हुए) आप तो भावुकतापूर्ण हो गए| अपने भाईजान
को कष्ट पहुंचाने का तो नहीं था कोई मकसद मेरा| आप स्वयं ही
तो हैं खो रहे मनोबल अपना| हम सब नहीं है चाहते बिछड़ना वती
बहन से| संयम से ही अगर धो दिए हस्त अपने तो थोड़ी कर पाएंगे द्वन्द
रण भूमि पर| बहन ठीक है और मिल ही जाएगी| उस के लिए
इतने रुधिर के अश्रू बहाने की आवश्यकता कैसी? अम्मी रे, हैं क्यों रुआंस रहे?
विजय: भाईजान को दिया तुमने पढ़ा पाठ जीवनकाल का| रखेंगे
स्मरण में इन लफ़्ज़ों को तुम्हारे जीवन भर| है अब समझ
लिया हमने कि क्यों महारानी के लिए थे बाल नयनों के तारक| यही सच्चे
मन के एवं मधुर से होते हैं बालक| सुगन्धित
गुलदस्ते होते हैं बच्चे पुष्पों के जैसे| व्यथाओं से
ही करा देते हैं मुक्त मस्तिष्क को| अम्मी कर
रही होंगी प्रतीक्षा तुम्हारी, घर जाओ अपने| (मन में
विचार करते हुए) सत्य में ही है आमिलाह यह; सुकर्मों की कर्ता और न्याय परायण|
आमिलाह: होगी अब कल मुलाक़ात भाईजान|
कथावाचक: आगामी दिवस, स्वर्णिमलोक से है करती प्रस्थान
नवीन सेना सहित महारानी विजयवती तथा वरद के| हौंसला होता
है फौलादी एवं होता है संचार जुनून का| ले कर आशीष
ब्रह्मचरिणी का, तान कर सीना, टांग कर शस्त्र, भर कर जोश, बाँध कर शीष पर कफ़न, है
सेना करती प्रयाण ओर रण भूमि के|
[तभी गर्भ से मधुअचारिणी के होती
है प्रकट एक सौम्यता से भरपूर्ण सोन-चिरैया| गहरी सी
आँखें और रेशम से अलक होते हैं शान उसकी| होते हैं
विशूभित कुसुम केशों पर उसके| उंगल पर है
विराजती उड़ती हुई सुनहरी मत्स्य| वस्त्र भी
हैं होते एकदम चटकीले और रमणीय से गुलाबी वर्ण के| होता है
समाया हुआ सौन्दर्य कुदरती| है होती हीरे सी शक्ल उसकी| गुलाब जैसे
लाल ओष्ठ एवं तरंगमय कुंतल लगा देते हैं सीरत पर उसकी रजनीश ४| होता है नाम
उसका अनामिका|]
{रण भूमि पर}
मयूर: अरे, आज इस नभ का वर्ण हो कैसे गया इतना
चमचमाती ज़रद? क्या संकेत है यह? समझ ही नहीं है आ रहा कि होने को है क्या हो रहा| कुछ तो अचरज
कर देनी वाली घटना है घटने वाली|
विजय: जो भी हो, अभी युद्ध की ओर ध्यान केन्द्रित
करने में ही होगी समझदारी| जो होने को होगा, देख ही लेंगे
हम उसे| मत हो भयभीत तथा भटको मत राह से अपनी| केवल एक ही
है लक्ष सिद्ध करना हमें|
चंद्रमुखी: है क्या किसी को बोध दृश्य के द्वारा दिए जा
रहे इस संकेत का? मत करो विचार इतना वर्ना हो जाओगे असक्षम करने में युद्ध| सभी हैं
टेकते घुटने इस जोरावर चंद्रमुखी के समक्ष| लिया ना देख
कि बना कैसे दिया मैंने गुलाम गगन को अपना| यह रंग है
दर्शा रहा कि चंद्रमुखी की है आज होने वाली जय| तू स्वयं
विजय हो कर हो जाएगा पराजित| रंग है बता
रहा कि जीवन में तेरे मचने वाली है आज त्राही-त्राही| तू भस्म हो
जाएगा अब जल कर| विजयवती जैसा ही नाश है होने को लिखा किस्मत में तेरी|
विजय: आई बड़ी चंद्रमुखी, हमें भयभीत करने वाली| पट्टी है
बंधी हुई अंखियों पर तेरी जो सत्य के समक्ष होने के बावजूद भी है नहीं कुछ देख पा
रही| नाश तो विजाया करेगी तेरा| दंड तो आज
तुझे मिलेगा, देखिओ प्रकोप उसका| नाकों चने
चबाने तो पड़ ही जाएंगे तुझे| विजाया का
नाश कर पाना तो है ही नहीं वश में तेरे|
चंद्रमुखी: ज़िद्दी तो बहुत है मायानगरी का राजकुमार| रट है लगा
रखी इसने बचाने की अपने राज्य को इस भव्य चंद्रमुखी के कहर से| असंभव यदि
होना है निश्चित तो प्रयत्न आखिर कर किस बात का है रहा| क्षण में आ
जा मेरी और जुटजा करने में मेरी सेवा| सरल विकल्प
भी है, सर्वनाश कर देने का तेरा| चंडाल वंश
के वफादार महीश, पूर्ण रूप से है माना तुम्हे| हो जाओ प्रकट
और दो सुला इसको सदा के लिए| वही करो जो
था किया तुमने विजयनन्दन के सहित|
महीश: (गुर्रहाते हुए) भाग विजय, भाग| प्राणों को
हस्त में ले कर भाग क्योंकि जीवन तो है अब समाप्त होने वाला तेरा| अब तो कटेगी
डोर तेरे श्र्वासों की|
कथावाचक: तभी अचानक से, है घट जाती चकित करने वाली घटना| अर्थ है हो
जाता स्पष्ट उस संकेत का| है कोई बेरहमी से जला देता महीश
को विषैली फूँगार से पूर्व विजय का करने के अंत| है कूद पड़ता
एक नर अम्बर से नाम जिसका होता है वैभव| तेज सा है
वह छा जाता और हैं होतीं बुझाएं उसकी अति प्रबल|
वैभव: क्या हुआ चंद्रमुखी? कहीं हो तो नहीं रहा
है तुझे किसी अनिष्ट का आभास? पैरों तले क्या है खिसक गई वसुंधरा? प्रविष्टि थी
क्या इतनी चौंकाने वाली, जो तेरे यह दर्प से भरे हुए नयन रह गए खुले के खुले? मत
कर सोच विचार इतना क्योंकि अगर नहीं ले पाई भाग रण में तो कोसेगी हमें ही| तेरे
हाथ-पैरों को फुला देने वाली का तो बस है होने वाला आगमन|
कथावाचक: एकाएक है टूट पड़ता नभ से वज्रपाल| भड़कती है
अग्नि और है कड़क जाता आकाश| है हो जाता आगमन झंझावत का| हो जाता है
धमाका और है रह जाती चंद्रमुखी हक्की-बक्की| ज्वाला की
तरह है प्रकट होती एक योद्धा नारी जिसकी होती है धाड़ शेरनी जैसी| है पहुँच
जाती अनामिका|
चंद्रमुखी: ए! फडफडाती हुई मछली, बिगाड़ क्या लेगी तू
मेरा? मेरी इस शैतानी ताकत के आगे तो तू एक मकड़ी से भी है छोटी| जिस रास्ते
है आई, लौट जा तू उस ही रास्ते| नहीं गई तो
तेरा यह चाँद सा रूप हो जाएगा कुरूप| मच जाएगी
तेरे जीवन में त्राही-त्राही|
अनामिका: ओ! नमस्ते पूजनीय महारानी| चंद्रमुखी,
मूर्ख हैं होते अवप्राक्कलन करने वाले| मेरे आते ही
तेरी अँखियाँ खुली की खुली हैं रह गईं तो सोच कहीं मेरे प्रभाव से ना आ जाए याद
तुझे तेरी नानी| यह तो थी शुरूआत, अभी चरमोत्कर्ष तो शेष है| आक्रमण करो
पराक्रमी सेना, एक भी पत्थर को पीसना मत भूलना|
विजय: बढ़ो आगे, अब तो शक्ति है हो गई तिगुनी| हर एक दोषी
का काट डालो मस्तक| स्मरण दिलाओ हर एक किए गए
अत्याचार का दंड देने से पूर्व| आज होगा कर
देना सर्वनाश बुराई का|
चंद्रमुखी: ऐ लड़के! बड़ा उछल रहा है ना तू| जानता नहीं
है क्या कि कितनी प्रचंड समस्या है बुला ली तूने स्वयं के लिए चंडाल वंश के वफादार
महीश को जला कर|
वैभव: बुद्धि नहीं है क्या तुझ में इतनी जो समझ
नहीं है पा रही कि नहीं है होता कोई लाभ घाटे पर बिदकने का| तेरे इस
क्रूर महीश का काल तो निश्चित था| जल्द ही वध
तो हो तेरा भी जाएगा दनुज रानी|
कथावाचक: अनामिका और वैभव का फ़रिश्ता होना है हो जाता
प्रकाशित| विजय और वैभव में है खिल जाता साझेदारी का पौधा एवं जुड़ते
ही उनकी शक्ति के, हिल जाती है धरणी| प्राण बचा
कर भागने हैं लग जाते क्षत्रु| बाण विजय के
चीर हैं देते दुश्मनों के सीने और वैभव की मेधा है कर देती दुष्टों का संहार| छिड़ है जाती
प्रतिस्पर्धा तलवारबाज़ी की अनामिका और चंद्रमुखी के मध्य जिसके समक्ष चंद्रमुखी है
आ जाती कर्दिश में|
अनामिका: देख लिया न मनुष्यता की शक्ति को| इस ही भूमि
पर निडर महारानी विधर्बिका ने प्रजा को कराया था मुक्त चंडालिनी के अत्याचारों से| पापों का
घडा तो अब भर तेरा भी चुका है जिसे करने के लिए चूर-चूर भेजा है मुझे परमात्मा ने|
चंद्रमुखी: तोड़ने का प्रयास कर रही है मुझे| मूर्खता है
तेरी जो इस सपनों की दुनिया में है भटक रही| इस से पूर्व
की हो जाए तू चकना-चूर, माँग ले क्षमा मुझ
से| आवश्य ही तरस आ जाएगा तुझ जैसी छुई-मुई पर| नहीं है कुछ
भी मेरे समक्ष तेरी यह मनुष्यता|
अनामिका: अवप्राक्कलन करना तो है शायद पुरानी आदत तेरी| खैर, क्या
भय है हो रहा तुझे मुझ से जो कह रही है मुझे पीछे हटने के लिए? पूर्ण रूप से तेरा
सर्वनाश कर देने की हूँ ठान कर आई| नहीं हटूंगी
पीछे कीमत पर किसी| जहां-जहां भागेगी जान बचा कर
वहां-वहां पाएगी मुझे|
चंद्रमुखी: तो दृढ़ निश्चय कर है तू आई| कोई बात
नहीं; कमर तोड़ना तेरी तो है बाएँ हाथ का खेल मेरे लिए| जो है करता
गड़बड़ साथ मेरे, पछताता तो है वह आजीवन| विलाप तो आज
होगा ही तुझे करना ललकारने के लिए मुझे| रो, तेरे इन
अश्रुओं की बूंदों को तो आज होगा गिरना दूर-दूर तक|
कथावाचक: तभी हो जाता है खूंखार जादू चंद्रमुखी का| विस्पोट है
वह कर देती इतना भयानक सा कि घटने वाला होता है अनिष्ट| है फंस जाती
अनामिका शिकंजे में उसके और है गिर जाती धरा पर| करने खात्मा
उसका, है आगे बढ़ती चंद्रमुखी|
अनामिका: आ! ठैर जा चंद्रमुखी क्योंकि अगर नहीं रोका
तूने अपने इन क़दमों को तो पछताएगी बहुत| (कलाबाज़ी
लगा कर है खड़ी हो जाती अनामिका|फैला कर
बुझाओं को अपनी है वह करती रचना गोले की कांच के| कर उस गोले
के टुकड़े-टुकड़े, हैं चीर दिए जाते सीने शैतानों के|) बोल, कम
आंका था ना तूने मुझे| अब देख कैसे तू गिर जाएगी समक्ष
मेरे|
चंद्रमुखी: (साँस है फूल जाती) मूर्ख औरत, नहीं रुकी तो,
अनामिका: तो क्या चंद्रमुखी? सत्य है कि तू है क्षत्रु
अक्ल की| अगर होती ज्ञान की उपस्थिति पास तेरे तो कतई ना करती तू
कुकर्म ऐसे| क्या करूं, इस रुधिर की प्यास को तो होगा ही ना बुझाना| (पीछे से
प्रहार करने को है होते दुश्मन लेकिन भान है हो जाता उसका अनामिका को| निकाल कर
बाण तरकश से अपने है वह कर देती विनाश उन विक्राल शैतानों का|)
चंद्रमुखी: लड़ने का है ना बहुत शौक तुझे| तो अब टेक ले
घुटने स्वयं के, समक्ष इस वार के| निश्चित तो
है इतना कि कौशल नहीं होगा तुझमे निपट लेने का बाणों के सागर से| चख ले आज
मज़ा इन बाणों का क्योंकि शायद है यह अंतिम जंग तेरी|
कथावाचक: कर प्रयोग अपने इंद्रजाल का, चंद्रमुखी है रच
देती तीरों के एक रत्नाकर को जो है हो जाता अग्रसर ओर अनामिका की| मगर थी
अनामिका बहुत ही फुर्तीली| कर प्रयोग अपने शरीर के लचीलेपन
का, वह है लगाती कलाबाज़ी और है दे देती चकमा तीरों के उस समुद्र को|
अनामिका: ओ! मुझे तो ज्ञात ही नहीं था कि इतना दुर्बल
होगा इंद्रजाल तेरा जो हो जाएगा पराजित एक फडफडाती जल जीवा के हाथों| देखतें हैं
कि क्या है तू बच पाती शक्ति से मेरे अलकों की| (बढ़ा कर
लम्बाई केशों की अपने, है जकड़ लेती अनामिका चंद्रमुखी को अलकों के जाल में| पटक-पटक कर
उस राक्षसी को धरणी पर, है अनामिका पिला देती दूध छट्टी का|) बेचारी, इस
छुई-मुई के नाज़ुक केशों का भी कर नहीं पाई सामना|
कथावाचक: होती है अनामिका करने वाली विध्वंस चंद्रमुखी
का परन्तु पूर्व उसके है हो जाता सूर्यास्त और जंग है समाप्त हो जाती उस दिवस के
लिए| भूमि पर आहात हो कर है गिर जाता वैभव पैर के बल|
विजय: वैभव! हो क्या गया तुम्हे? ठीक तो हो ना?
प्रयास करो खड़े होने का| आराम से, इतना दबाव मत दो पैर को
अपने|
वैभव: आ! दर्द तो हो बहुत रहा है| नहीं जानता
कि आखिर हुआ क्या है पर हां पैर सीधा कर नहीं पा रहा| खड़ा होना तो
है बात दूर की|
विजय: मत करो कोई चिंता तुम| नहीं देंगे होने हम तुम्हे कुछ
भी| है यह लगता कि आ गया है तनाव पैर में
तुम्हारे| कोई बात नहीं, करी थी सहायता जैसे तुमने
हमारी, वैसे करेंगे अब हम भी| संयम ही होगा तुम्हें रखना|
कथावाचक: दे कर सहारा वैभव को स्वयं का, है विजय ले जाता शिवीर तक| पकड़ कर पैर कोमलता से, है वह ठीक कर देता तनाव पैर का वैभव
के ला कर प्रयोग में जादू को|
वैभव: धन्यवाद, तुमने तो सत्य में ही है कर दिया उपचार पैर का मेरे| हो गई ऐंठन दूर पूर्ण रूप से| शायद से हो जाऊं ठीक कल तक|
विजय: होने के लिए ठीक, होगा करना विश्राम तुम्हे| आशा हैं करते कि तुम लो नींद भरी हुई चैन से| रहना बेख़ौफ़ क्योंकि है नहीं कोई खतरा तुम्हे इस स्थान पर| शुभ रात्रि|
कथावाचक: निकलते ही शिवीर से, होती है मुलाक़ात विजय की अनामिका से| है वह बतलाता उस खुबसूरत योद्धा को बारे में विजयवती के| है वह कहता कि देख उसे, होता है एहसास अपनी प्रिय सखी का| होते हैं अनामिका और विजयवती चट्टे-बट्टे एक ही थैली के;
दोनों दयालु, सौम्य व निपुण| है समझ लेती अनामिका मन के भावों
को उसके|
{जंग के आगामी दिन}
अनामिका: हो
जा सजय चंद्रमुखी, नाश के लिए स्वयं के| रह गया था
कल जो कार्य मेरे हाथों अधूरा, कर डालूंगी पूर्ण आज उसे| आ, हूँ मैं ललकारती तुझे करने के लिए युद्ध मेरे से|
चंद्रमुखी: अति भीमकाय विडम्बना तो है बुला ली तूने
स्वयं के लिए कर सर्वनाश मेरे शैतानी सैनिकों का| क्या है तू भोली
इतनी जो है नहीं जानती कि लिए थे थाम श्र्वास मैंने उस तेज़ धार पैनी तलवार विजयवती
के| फिर तुझ जैसी निर्बल सोन चिरैया है कुछ भी
नहीं समक्ष मेरे| (खींच कर हस्त उसका, है चंद्रमुखी करती वार
खंजर से|) ले, यूं ही नहीं था कम आँका मैंने तुझे|
अनामिका: (पीड़ा में बोलते हुए) आ! अच्छा नहीं है किया चंद्रमुखी तूने डाल कर
यह कुदृष्टि अपनी, इन सुखद राज्यों पर| कीमत तो
होगी ही चुकानी तुझे| (हस्त से है बरसाती अनामिका अपने, गोले पावक
के| पावक से हैं घट जातीं शक्तियां चंद्रमुखी की| पकड़ कर उस क्रूर को, है अनामिका फेंक देती चंद्रमुखी को
दूर रण भूमि पर|)
चंद्रमुखी: ओ! तो है नहीं मानते लातों के भूत बातों से| कोई बात नहीं| ऊँगली टेड़ी
कर भी है आता मुझे घी निकालना| देख, इन लोचनों को खोल कर देख
दृश्य तबाही का अपनी| सैनिकों, घेर लो इसे चारों दिशाओं से| भाग कर यह जाने ना पाए| सबक तो सिखाउंगी
मैं तुझे नाज़ुक परी| (लपक कर पीछे से, उठा कर अनामिका को ऊपर गगन
में, चंद्रमुखी है गिरा देती भू पर|) चूस डालो रूह इसकी, पहुंचा दो
इसको अंजाम तक विजयवती के|
कथावाचक: कहीं हैं बरसाते तोप के गोले निलीमा और गुंजन तो कहीं है चपला के
समान कटारियां चलाते हाकिम और मृगेंद्र| हैं मचा
देते ये मार भारी रण भूमि पर| हैं काप जातीं आत्माएं शैतानों
की देख कर इस असाधारण प्रकोप को| जब हैं होते पीछे से वार करने के
लिए अग्रसर सैनिक, तब हैं दिखाते शरारतें अपनी सादवी और मयूर| बजा कर मायावी पटाखे, हैं वे उड़ा देते अम्बर में कपटियों
को क्योंकि है हो जाती असाहय उनके लिए करनी प्रतीक्षा दीपावली की| धमाल है मचाता त्रिशूल वैभव का तो धमाके हैं करते तीर-कमान
विजय के| है सूझ जाती तरकीब अनामिका को तोड़ने की वह
छली सा घेरा|
अनामिका: (निकाल पुष्पों को कुंतलों से अपने, समझ कर असीम शक्ति को उनकी,
प्रहार है कर देती वह| टूट है जाता घेरा एवं है हो जाता संहार
दुष्टों को| मीठी चुटकियाँ लेते हुए, है वह बोलती;) देख
लिया कुदरत की इस असीम विभूति को| छुड़ा दिए न छक्के इन सामान्य
कुसुमों ने शैतानों के तेरे| प्रसन्न थी ना हो रही तू थाम कर
धड़कनों को विजयवती की? नहीं है इतना भी ज्ञात तुझ जैसी बेचारी को कि है जीती तू
बल-बूते पर छल के| नहीं पाती बिगाड़ तू कुछ भी उस योद्धा का, कर
प्रयोग ईमानदारी का| चली हूँ आज मैं लेने इंतकाम उसका एवं उसके
प्रियजनों का| सुन्दरता तो है बहुत तूने निहार ली, अब ज़रा
आनंद कर ले प्राप्त इस सौम्य चेहरे के पीछे छिपे शैतान का|
{सहसा
हैं प्रकट हो जाते दो धुलंदर, एक वैभव तो दूसरा विजय| होते ही सर्गम, स्वरों के इन तीन शक्तियों का, बज है जाती
एक धुआंदार धुंध| मच है जता हल्ला-गुल्ला मैदान पर जंग के}
विजय, अनामिका एवं वैभव: (अराधना करते हुए) प्रकृति के पूजनीय तत्वों को
सत्-सत् नमन हमारा| तहे मन से हैं हम करते प्रणाम इन महान
प्राकृतिक कणों को| अग्निदेव, जलदेव, वायुदेव; कर मार्गदर्शन
हमारा, करें प्रदान शैतानों को दंडितत करने की शक्ति|
वैभव: जल है मणि अनमोल सी| है करता
सलिल भरण-पोषण जीवों का परन्तु कभी-कभी है बन जाता वह कारण विध्वंस का| जब है आ जाती बाढ़, तब डूब है जाता समस्त वंश कहर में उसके| डुबाने तुझे आज, नीर में उस ही, आ रहा हूँ मैं|
विजय: समीर है होता स्त्रोत साँसों का, हल्का सा झोंका है कर देता
मुदित उर को| उपस्थिति में बयार की, सुरसुराते हैं तरू| पर तब क्या जब लग जाए हवा का अति तीव्र वेग उजाड़ने विश्व
को? तब क्या, जब हो जाए आगमन अति प्रचंड बवंडर का? उजाड़ने तुझ जैसे पापियों को,
हैं आ रहे हम|
अनामिका: कभी है क्या सुना अनल के विषय में तूने? तिमिर में है ज्वाला प्रदान
करती पावक| जब है सुलगाई जाती अनल दीयों में, तब समस्त
परिवेश को है कर देती रौशन| सोचा है क्या कभी प्रकोप भड़की
हुई आग का? जब भड़क जाए तब है सब कुछ जला कर देती राख अग्नि| करने के लिए तुझे भस्म, आ रही हूँ मैं| मिलेगी अब यह त्रिशक्ति तथा देगी पहुंचा तुझे नर्क में|
कथावाचक: प्रकृति का महावीर स्वरूप है कर देता मजबूर चंद्रमुखी को डाल देने
पर अपने हथियार| हैं गरजते पयोद आकाश के, पश्चात जिसके है
होता आगमन भारी-भरकम बरसात का| चलने है लगतीं तीव्र वेग से
हवाएं जिनके कारण है उत्पन्न हो जाता एक शक्तिशाली चक्रवात| ऊष्मा में आए बढ़ाव के कारण है लग जाती भयप्रद सी पावक
जिसका है होता मकसद कर देने का भस्म प्रत्येक दरिद्रता को|
चंद्रमुखी: (हिम्मत खोते हुए) बस, बंद करो अपने इस तांडव
को| जो चाहिए, मिलेगा तुम्हे| दुनिया के सभी ठाठ-बाठों का सुख प्रदान करूंगी| वचन देती हूँ इस बात का कि कभी भी नहीं करूंगी अत्याचार तुम
पर| यदि छोड़ दिया तुमने तो यह सारी शैतानी शक्ति
तुम्हारी पर बस मारो मत मुझे|
विजय: विलंभ है तूने बहुत कर दिया, करने में प्राइश्चित अपने दुसाहस का| दंड तो भोगना ही होगा तुझे, एक-दूसरे पर जान छिड़कने वाले
मीतों को बिछुड़ने के लिए मजबूर करने का| प्रलोभन
देने से है नहीं कोई लाभ तुझे होने वाला|
वैभव: रण भूमि पर करना छल होता है खिलाफ नियमों के| बहुत बेरहम थी ना तू मासूम प्रजा पर तिलिस्मगढ़ और मायानगरी
की| ले कर सहारा कपट का ही, हरने का प्रयास किया
था ना तूने एक निशस्त्र योद्धा के प्राणों को| अब चुका
कीमत इन सब गुह्नाओं की|
अनामिका: अरे मित्रों! आखिर उम्मीदे लगा तुम किस से रहे हो, उस से जिसने अपनी
ही मातृभूमि हश्रनगर का कर डाला हश्र? जिसने अपनी ही प्रजा को धरणी पर दिखला दिया
नर्क, उस क्रूर से तो है दूसरों पर अत्याचार करना अपेक्षित| हथियारों से नहीं बिगाड़ पाई कुछ तो चली है लालच से लुभाने!
लालच है बुरी बला, इस बला से है बच कर रहना|
विजय, अनामिका और वैभव: (हाहाकार सहित करते हुए तांडव) वात, वह्नि, वारि
हो जाओ संगठित| अब यह अंतिम वार तथा पश्चात इसके दरिद्रता
फैलाने वाली का हो जाएगा विनाश सदा के लिए| जय कुदरत!
आआआआआआआ!
कथावाचक: वायु है सीमाहीन गगन में उसे उड़ा देती; वजह से जिस, हो जाता है भार
उसका हल्का| पड़ते ही जल के, है धुल जाता समस्त अहंकार| अंतिम वार होता है द्वारा अनल के जो नीर के द्वारा प्रदान
की शीतलता पर है चढ़ा देती ताप| ठंड के ऊपर ऊष्मा होती है घातक
जिस के कारण चंद्रमुखी हो जाती है भस्म| हैं सभी
योद्धा चिल्लाते सविजय, “जय हो तिमा की, जय हो इस शानदार त्रिशक्ति की|”
विजय: कर नहीं पाते कुछ बिन तुम फरिश्तों की सहायता के| क्या कमाल का हो लड़ते तुम दोनों, प्रभावित ही कर दिया| सबसे सही समय पर ही थे तुम आए|
सादवी: सही ही कहा हमारे राजकुमार ने| आए ही हो,
तो पाहुना तो पड़ेगा बनना राज्यों का हमारे|
वैभव: होगी ही खुशी रहने में मध्य उन लोगों के जिन्हें हैं सूझतीं
शरारतें जंग के मैदान पर भी| क्या सोच है पाई तुमने एवं मयूर ने
जलाने की पटाखे दौरान युद्ध के| कितने उतावले हो तुम मनाने के लिए
दीपावली|
कथावाचक: तभी एक अनोखा प्रभावमंडल उत्पन्न हो जाता है| उठा कर अनामिका और वैभव को है वह बदल देता स्वरूप उनका| अनामिका सिद्ध होती है विजयवती और वैभव है प्रकाशित होता
वरद| पा कर गुमशुदा महारानी को अपनी, आनंदित हैं
हो जाते अंतःकरण उपस्थित सभी के| रहा है नहीं जाता विजय से एवं भर
आतीं हैं अँखियाँ उसकी| भर लेता है सर्वप्रिय विजाया को अंक में| प्रस्थान करने वाला
होता है वरद|
विजय: तुम अभी जाने का विचार हो कैसे ला सकते मस्तिष्क में अपने?
मुलाक़ात हो रही है ६ वर्षों पश्चात और तुम हो कि छोड़ कर जाने के लिए हो रहे हो
उतावले| अभी तक तुमने तिमा को है देखा ही कहाँ? कुछ
दिनों के लिए तो हो ही रुक सकते|
वरद: अभिलाषा तो थी मेरी भी बहुत व्यतीत करने की समय अपने सर्वप्रिय
मित्रों सहित| सत्य कहूँ तो यह रियासतें हैं बहुत ही
प्यारभरी एवं खुशहाल| मजबूर हूँ, सावन आने वाला है और छत की
मरम्मत भी हूँ छोड़ कर आया अधूरी| यदि नहीं की मरम्मत निर्धारित
समय पर तो मेरी माता ही कर देंगी मरम्मत मेरी| मैं ऐसे ही
हूँ कुशल, यदि हो गई और मरम्मत तो नहीं रहूँगा कहीं का|
विजयवती: मन बहुत था तुम्हारे साथ व्यतीत करने का समय परन्तु कर्तव्य तो हैं
होते निभाने सभी को| यदि नहीं होता साथ तुम्हारा तो पछता रहे
होते ले कर निर्णय अनुचित| सैन्य निर्माण हो जाता हमारे लिए
करना दूभर अनुपस्थिति में सहायता की| है प्रदान नव जीवन तुम्हे| नहीं हैं सकते भूल इन उपकारों को|
वरद: मित्रों पर उपकार कैसा? उपकार तो है किया मुझ पर तुमने प्रदान
कर मित्रता निभाने का मौक़ा| वैभव बन कर तो है कर ली मुलाक़ात
तुम से| होतीं हीं रहेंगी अब मुलाकातें भविष्य में|
विजय और विजयवती: आल्विदा! रखना ध्यान सहित अपने अपनी जननी का भी| शुभ यात्रा वरद|
कथावाचक: एक सप्ताह पश्चात है रम जाती विजयवती नए मौहल में| पूर्व उसके है दी जाती श्रद्धांजली जंग में हुए शहीद सभी
वीर शहीदों को| दुश्मन सैनिकों को भी है प्रदान किया जाता
मान और है मांगी जाती दुआ लाने की उन्हें मार्ग पर उचित अगले जन्म में| हश्रनगर को भी प्रदान किया जाता है सहारा और है जगाई जाती उम्मीद प्रजाजनों में| जाती है विजयवती तट पर मधुअचरिणी के एवं है करती शुक्रिआदा
उस पूजनीय माता का जिसने था रक्षण किया उसका हो जाने से विसर्जित| विजय है करता इसहार अपने मायावी प्रेम का| मन-मुदित हो कर विजयवती है थाम लेती हस्त उसका| देखते हुए विपुल देवत्व एवं पावनता को उन दोनों के प्यार की, है करा दिया जाता विवाह उनका| ज़ोर-शोर से होता है दुल्हन के
जोड़े में सजी हुई विजयवती का नए घर में स्वागत| विजय है
लगता सर्वोत्तम शेरवानी में स्वयं की| मायानगरी को
है मिल जाती महारानी तो तिलिस्मगढ़ को है हो जाती प्राप्ति महाराजा की| जब है आती याद राज्य की अपने, विराज कर तुरंग पर, है
प्रवेश करती विजयवती तिलिस्मगढ़ में|
{१ वर्ष पश्चात, पशु-पक्षियों से
घिरे हुए वन्यभुवन में}
विजय: थे तरस गए हम पाने के वास्ते एक झलक तुम्हारी| तुम ही तो
हो जीवन हमारा, उल्लास हमारा, हँसी हमारी, कष्ट हमारा, अश्रु हमारे क्योंकि हो तुम
आशिकी हमारी, पत्नी हमारी| महाराजा भी तो थे बने कर विवाह
तुम से|
विजयवती: ओ! है लगता कि पुनः हो गया है मिलन बिछुड़े हुए दिलों का| जन्मों से है जुड़ा साथ हमारा, काल से विजयनन्दन और
विजयनन्दिनी के| जीवन का प्रयोजन सिद्ध हुआ| तुम ही हो कारण जीवन के एवं स्वर्गवास भी होगा करना
तुम्हारे| पूर्ण है हो गई जन्मों की प्रेम गाथा द्वारा इस मिलन के|
[कर्णों
तक हैं पहुँचते मृदुल स्वर भंवरों के| हैं
गुनगुनाने लगतीं दूर खेतों में उगी फसलें| कोयल है लगती कूकने एवं अचानक है हो जाता
यह दृश्य मधुर सा परिवर्तित एक घटना में| होते ही
पूर्ण इस गाथा के, है गिर जाता पर्दा]
समाप्त
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